स्व्याम्भुव मनु के वंश तथा जगत में नाना जीवों के अस्तित्व का वर्णन।


पृथ्वी में मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के जन्म का विवरण, ब्रह्मा जी से समस्त देहधारियों की श्रृष्टि।

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समस्त देह देह-धारियों के पितामह " ब्रह्मा जी"

मनु तथा शतरूपा का ब्रह्मा जी से प्रकट होना।

जगत श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी ने सनक, सनंदन, सनातन तथा सनतकुमार, नामक अपने चार मानस पुत्रों को उत्पन्न किया तथा उन्हें प्रजा विस्तार की आज्ञा दी। परन्तु, वे चारों सर्वदा ही ब्रह्म-तत्व को जानने में मग्न रहते थें, परिणामस्वरूप ब्रह्मा जी को बड़ा ही क्रोध हुआ तथा क्रोध-वश अपने मस्तक से ‘मनु (पुरुष) तथा शतरूपा (कन्या) को प्रकट किया तथा उन्हें प्रजा विस्तार की आज्ञा दी। इस चराचर जगत के सम्पूर्ण जीव इन्हीं दोनों की संतान हैं। स्वायंभुव मनु के महारानी शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक के दो पुत्रों के अलावा तीन कन्याएं और भी थीं; जो आकूति, देवहूति और प्रसूति नाम से विख्यात थीं।

स्वायंभुव मनु के कन्याओं की वंश परंपरा

मनु की कन्या 'आकूति का रूचि प्रजापति' के संग विवाह तथा उन दोनों से 'विष्णु तथा दक्षिणा की उत्पत्ति'।

आकूति का विवाह रूचि प्रजापति के संग हुआ, प्रजापति भगवान् के चिंतन के कारण ब्रह्म-तेज से सम्पन्न थे। आकूति के गर्भ से साक्षात् यज्ञस्वरूपी ‘भगवान् विष्णु’ तथा भगवान् नारायण से कभी न अलग रहने वाली 'लक्ष्मी जी' की अंश अवतार रूपी ‘दक्षिणा’ नाम के दो संतान ने जन्म ग्रहण किया। रूचि प्रजापति के पास कन्या को छोड़, मनु अपने साथ पुत्र को ले आये। तदनंतर, कालांतर में जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उन्होंने यज्ञ पुरुष "विष्णु" को ही पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। भगवान् विष्णु ने दक्षिणा से विवाह किया तथा बारह पुत्रों को उत्पन्न किया; उनके नाम हैं तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शान्ति, इदस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन। भगवान् विष्णु के ये बारह पुत्र स्वायम्भुव मन्वंतर में ‘तुषित’ नाम के देवता हुए, इस मन्वंतर में मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान यज्ञ ही देवताओं के अधीश्वर इंद्र थे, मनु-पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद भी वे ही थे।

मनु की 'देवहूति नाम की कन्या का कदर्म प्रजापति-ऋषि के संग विवाह तथा कपिल भगवान् तथा नौ कन्याओं का जन्म।

मनु की दूसरी कन्या देवहूति का विवाह कदर्म जी के संग हुआ, भगवान नारायण के कपिल अवतार को उन्होंने पुत्र रूप में प्राप्त किया, साथ ही इनकी नौ कन्याएँ भी थीं। कपिल भगवान के दर्शाए हुए मार्ग से उन दोनों ने मोक्ष प्राप्त किया। कदर्म जी की नौ कन्याओं का विवाह नौ ब्रह्म-ऋषि से हुई थीं।

कदर्म जी की पुत्री ‘कला’ का विवाह मरीचि ऋषि से हुआ था, जिनके दो पुत्र हुए कश्यप और पूर्णिमा, इन्हीं दोनों के वंश या संतानों से समस्त जगत भरा हुआ हैं। पूर्णिमा के दो पुत्र – विराज और विश्वग तथा देवकुल्या नाम की एक कन्या थीं, यह कन्या अपने दूसरे जन्म में देव-नदी गंगा के रूप में प्रकट हुई।

महा-देवों (ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश) के अत्रि ऋषि के घर जन्म लेने का कारण।

ब्रह्मा जी से उनके पुत्र मरीचि को सृष्टि रचना हेतु आज्ञा प्राप्त हुई, परिणामस्वरूप वे अपनी सहधर्मिणी संग तप-साधना करने हेतु ऋक्ष नामक पर्वत पर गए। वहां के विशाल वन में प्राणायाम द्वारा चित को वश में रखते हुए सौ वर्षों तक केवल वायु पी कर, सर्दी-गर्मी इत्यादि द्वंदों की चिंता न करते हुए, एक पर पर खड़े हो केवल मन में प्रार्थना करते रहे कि “जो कोई इस चराचर जगत के ईश्वर हैं, में उनकी शरण में हूँ; वे मुझे अपने समान संतान प्रदान करें।”
अत्रि मुनि के कठोर तप से उनके मस्तक से तेज निकल कर तीनों लोकों को तपा रहा हैं, इसे देख तीनों महा-देव ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश उनके आश्रम में आये। अत्रि मुनि ने एक पैर से खड़े हो कर उन तीनों को अर्ध्य-पुष्पों से उनकी पूजा की तथा दंड के समान लेट कर प्रणाम किया। वे तीनों महादेव अपने-अपने वाहन हंस, गरुड़ तथा महेश (बैल) पर आरूढ़ हो कर आयें थे तथा अपने हाथों में चक्र, त्रिशूल आदि अस्त्र थे। अत्रि मुनि ने उनसे कहा ! प्रत्येक कल्प के आरम्भ में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और ले हेतु माया-सत्त्वादि गुणों को विभक्त कर भिन्न-भिन्न शरीर धारण करने वाले, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश में आप को प्रणाम करता हूँ। कृपा कर आप मुझे बताएं की मैंने जिन महानुभाव का स्मरण किया था वे आप तीनों में से कौन हैं ? मैंने केवल संतान प्राप्ति की कामना से एक सुरेश्वर भगवान् का चिंतन किया था; आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैसे की; कृपा कर आप मुझे इसका रहस्य बताइये।
अत्रि मुनि की इस प्रकार वचन सुन कर तीनों देवों ने कहा ! तुम सत्य संकल्प हो, अतः तुमने जैसा संकल्प किया था, वही होगा, तुम जिन ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं। तुम्हारे यहाँ हमारे अंश स्वरूपी तीन जगत विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे, जो तुम्हारे यश का विस्तार करेंगे। इस प्रकार तीनों महादेव; ऋषि तथा उनकी पत्नी अनसूया से पूजित हो वह से अपने-अपने लोकों को चले गए। ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से योग-वेत्ता दत्तात्रेय तथा महादेव जी के अंश से दुर्वासा, अत्रि ऋषि की संतान रूप में जन्म ग्रहण किया।

अंगीरा की पत्नी श्रद्धा ने “सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति”, चार कन्याओं को जन्म दिया। इनके अतिरिक्त उनके "उतथ्यजी और बृहस्पतिजी", इन दोनों पुत्रों ने जन्म लिया।

पुलस्त्य जी की उनकी पत्नी हविर्भू से, महर्षि “अगस्त और विश्रवा” ये दो पुत्र हुए, इनमें अगस्त जी अपने दूसरे जन्म में 'जठराग्नि' हुए। महातपस्वी विश्रवा मुनि की पत्नी इडविडा के गर्भ से यक्ष-राज “कुबेर” का जन्म हुआ तथा उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से ‘रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीष’ से जन्म ग्रहण किया।

महर्षि पुलह की अर्धांगिनी गति से “कर्मश्रेष्ठ, वरियान और सहिष्णु” तीन पुत्रों ने जन्म लिया।

क्रतु की पत्नी क्रिया ने ब्रह्मा तेज से संपन्न देदीप्यमान “वार्लखल्यादि”, साठ सहस्त्र ऋषियों को जन्म दिया।

वसिष्ठ जी की पत्नी उर्जा (अरुंधती) से "चित्रकेतु आदि" सत् विशुद्ध-चित ब्रह्मऋषियों का जन्म हुआ, “चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्यण, वसुभृद्यान और द्युमान” इनके नाम थे। इनकी दूसरी पत्नी से शक्ति आदि अन्य पुत्र भी हुए।

अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने “दधीचि” (दद्यङ्) नामक महान तपोनिष्ट पुत्र को जन्म दिया।

भृगु ऋषि के वंश का वर्णन।

भृगु ऋषि की अपनी पत्नी ख्याति से “धाता और विधाता” नामक पुत्र तथा “श्री” नाम की एक कन्या ने जन्म हुआ। मेरु ऋषि की आयति और नियति नाम की कन्याओं का क्रमशः विवाह धाता और विधाता के संग हुआ, जिनसे ‘मृकंड और प्राण’ नाम के पुत्र हुए। मृकंड से ‘मार्कंडेय’ तथा प्राण से ‘वेदशिरा’ नामक पुत्रों का जन्म हुआ। इसके अलावा “उशना या शुक्राचार्य” नामक पुत्र भी भृगु की थीं।
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प्रसूति तथा दक्ष प्रजापति का विवाह तथा उनसे उत्पन्न संतान।

मनु की तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह, ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति से हुई थीं, उन्हीं की विशाल वंश परंपरा तीनों लोकों में फैली हुई हैं। दक्ष ने अपनी कन्याओं में, तेरह कन्याएं; श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्रीं और मूर्ति का विवाह धर्म के साथ किया। इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शांति ने कुछ, तुष्टि ने मोड़ और पुष्टि ने अहंकार को जन्म दिया; क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम, लज्जा (ह्रीं) ने विनय नामक पुत्र को उत्पन्न किया। मूर्ति देवी ने भगवान् नारायण के अवतार “नर-नारायण” नामक ऋषियों की जन्म दिया। पृथ्वी का भर उतारने हेतु नर-नारायण ही यदुकुल के श्री कृष्ण तथा उनके साथी अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए थे।

अग्नि देव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि समान अभिमानी पावक, पवमान, और शुचि नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये; यह तीन ही हवन किये हुए पदार्थों का भक्षण करने वाले हैं; इन तीनों से ४५ प्रकार के अग्नि उत्पन्न हुए। अपने पिता, पितामह तथा ४५ अग्नि मिल कर उनचास अग्नि कहलाये।

दक्ष कुमारी स्वधा की, ‘अग्निष्ठात्त, बहिर्षद, सोमप और आज्य्प’, नामक पितरों से विवाह हुआ, इनसे ‘धारिणी और वयुना’ नाम की दो कन्याएं उत्पन्न हुई। ये दोनों कन्याएँ ज्ञान-विज्ञान में पारंगत और ब्रह्मा ज्ञान का उपदेश करने वाली हुई।

महादेव जी की पत्नी ‘सती’ थीं, उनके कोई भी पुत्र नहीं था; युवा अवस्था में अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने पति के अपमान से क्रोधित हो, इन्होंने योगाग्नि से अपने आप को भस्म कर दिया था।

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र जिनको सप्तऋषी मंडल में स्थान मिला, १. मारीच ( ब्रह्मा जी के मन से प्रकट), २. अत्रि (ब्रह्मा जी के नेत्र मन से प्रकट), ३. अंगिरा (ब्रह्मा जी के मुख मन से प्रकट), ४. पुलह (ब्रह्मा जी के नाभि मन से प्रकट), ५. पुलस्त (ब्रह्मा जी के कान मन से प्रकट), ६. क्रतु (ब्रह्मा जी के हाथ मन से प्रकट), ७. वसिष्ठ (ब्रह्मा जी के प्राण मन से प्रकट), ८. भृगु (ब्रह्मा जी के त्वचा मन से प्रकट), ९. चित्रगुप्त (ब्रह्मा जी के ध्यान मन से प्रकट) १०. नारद (ब्रह्मा जी के गोंद मन से प्रकट) ११. दक्ष (ब्रह्मा जी के अंगुष्ठ मन से प्रकट), १२. कन्दर्भ (ब्रह्मा जी के छाया मन से प्रकट), इच्छा से चार सनतकुमार १३. सनक, १४. सनंदन, १५. सनातन, १६.सनतकुमार जो सर्वदा ही पांच वर्ष के बालक के रूप में विद्यमान रहते हैं। (मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा कदर्म ये प्रजापतियों के रूप में जाने जाते हैं।)

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि के, मानस पुत्र महर्षि कश्यप हुए, तथा दक्ष प्रजापति के १७ कन्याओं का विवाह इन्हीं कश्यप ऋषि से हुआ तथा इन्हीं से समत देव, पशु, दैत्य तथा देव उत्पन्न हुए हैं ।
१. अदिति से देवता, २. दिति से दैत्य, ३. काष्ठा से अश्व इत्यादि ४. अनिष्ठा से गन्धर्व, ५. सुरसा से राक्षस, ६. इला से वृक्ष, ७. मुनि से अप्सरागण, ८. क्रोधवशा से सर्प, ९. सुरभि से गौ और महिष, १०. सरमा से हिंसक पशु, ११. ताम्रा से सियार, १२. गिद्ध इत्यादि, १३. तिमि से जल के जीव, १४. विनता से गरुड़ और अरुण, १५. कद्रु से नाग, १६. पतंगी से पतंग, १७. यामिनी से शलभ।

ब्रह्मा जी की अंतिम मानस संतान "कामदेव तथा रति थीं

संक्षेप में अधर्म के वंश का विवरण।

‘सनकादि ऋषि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति’, ब्रह्मा जी के इन नैष्ठिक पुत्रों ने किसी से विवाह नहीं किया, सर्वदा ब्रह्मचारी ही रहें। ‘अधर्म’ भी ब्रह्मा जी का पुत्र था तथा इनकी पत्नी का नाम ‘मृषा’ थीं तथा इन दोनों की ‘दंभ तथा माया’ को जन्म दिया। इन दोनों को निऋति ले गए थे, वे संतान हीन थे। दंभ और माया से ‘लोभ तथा निकृति (शठता)’ का जन्म हुआ, इनसे ‘क्रोध और हिंसा’ का जन्म हुआ, इनसे ‘कलह और दुरुक्ति (गाली)’ उत्पन्न हुए। दुरुक्ति और कलह से 'भय तथा मृत्यु' को जन्म दिया तथा इन दोनों के संयोग से 'यातना और नरक' का जन्म हुआ।

स्वायम्भुव मनु के पुत्र वंश का वर्णन।

स्वायम्भुव मनु तथा उनकी पत्नी शतरूपा से भगवान विष्णु के कला से ‘प्रियव्रत तथा उत्तानपाद’ नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। उत्तानपाद का सुनीति तथा सुरुचि नाम की कन्या से विवाह हुआ था, इनमें सुरुचि राजा उत्तानपाद को अधिक प्रिय थीं जिसकी पुत्र का नाम "उत्तम" था, सुनीति उन्हें प्रिय नहीं थीं, सुनीति से जन्म ग्रहण करने वाले पुत्र "ध्रुव" भी उन्हें प्रिय नहीं था। उत्तम का वध यक्षों द्वारा हुआ था।

राजा ध्रुव का वंश वर्णन।

महाराज ध्रुव के बद्रिकाश्रम गमन के पश्चात, उनके पुत्र उत्कल ने राजसिंहासन को अस्वीकार कर दिया था। वे बाल्य-काल से ही शांत चित्त, आसक्ति त्यागी तथा समदर्शी थे, वे सम्पूर्ण लोकों को अपने आत्मा में और आत्मा को सम्पूर्ण लोकों में अनुभूत करते थे। उन्होंने योगाग्नि से वासना रूपी अग्नि को बुझा दिया था, सभी प्रकार के भेदों से रहित प्रशांत ब्रह्म को ही अपना स्वरूप समझते थे, उन्हें अपनी आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं दिखता था। वे अज्ञानियों को मूर्ख, अँधा, बहिरा, पागल सा प्रतीत होते थे, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं था, जिसने हेतु परमेश्वर श्री हरि ही ब्रह्मा हैं, उसे और किसी आसक्ति की क्या आवश्यकता हैं। इस प्रकार के आचरण को देख कर राज्य के मंत्रियों ने उनके छोटे भाई भ्रमि-पुत्र ‘वत्सर’ को राजा बना दिया।
वत्सर की भार्या ‘स्ववींथि’ के गर्भ से ‘पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्जा, वासु और जय’ नामक ६ पुत्र उत्पन्न हुए।
पुष्पार्ण के ‘प्रभा और दोषा’ नाम की दो सहधर्मिणी थीं, उनसें ‘प्रभात के प्रातः, मध्यन्दिन और सांय’ ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। दोषा के ‘प्रदोष, निशीथ और व्युष्ट’ ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। व्युष्ट ने अपनी पत्नी पुष्करिणी से ‘सर्वतेजा’ नामक पुत्र को जन्म दिया। सर्वतेजा की पत्नी आकूति से 'चक्षु' नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, चाक्षुष मन्वंतर में वही अधिपति मनु हुआ। चक्षु मनु की स्त्री नड्वला से ‘पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिवि, और उल्मुक' ये बारह सत्त्व गुण संपन्न पुत्रों ने जन्म लिया। इनमें उल्मुक ने अपनी पत्नी पुष्करिणी से 'अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय' नाम वाले ६ पुत्रों को जन्म दिया। अंग की पत्नी सुनीथा ने क्रूर-कर्मा, 'वेन' को जन्म दिया, इन्हीं वेन की क्रूरता से उद्विग्न होकर उनके पिता राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गए थें। उन्होंने कुपित होकर वेन को श्राप दिया था, जिससे उसकी मृत्यु हो गई थीं तथा राजा के न रहने के कारण लुटेरों द्वारा प्रजा में बहुत उत्पात मच गया था। इस समस्या के निवारण हेतु, ऋषियों ने वेन की दाहिनी भुजा का मंथन किया, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्री जानार्दन के अंश अवतार महाराज ‘पृथु’ ने अवतार लिया था।

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