सप्त स्वर्ग तथा तत्व ज्ञान

ब्रह्माण्ड का परिचय, सप्त लोक, तत्व ज्ञान

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Adhya Shakti or Adya Maa
Adhya Shakti or Adya Maa

महा-मोक्ष तंत्र के अनुसार, पार्वती जी का शिव से ब्रह्माण्ड उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रश्न करना।


एक बार पार्वती जी ने शिव जी से पूछा ! समस्त जगत का कर्ता, आकार रहित, गुण-हीन, सुनिश्चल, नाम रहित, शांत रूप में विद्यमान हैं, उनसे इस समस्त चराचर जगत की उत्पत्ति कैसे होती हैं?

भगवान शिव ने उत्तर दिया ! समस्त वर्णों की अतीता, सकल गुणों की अधिष्ठात्री तथा ऊर्ध्वतन, अवस्थिता, स्तुति-निंदा विरहिता, पूजनीय, पर तत्व स्वरूपिणी वैखरी शक्ति ही, स्वयं उत्पत्ति का कारण हैं। आकाश से वायु, वायु से सूर्य, सूर्य से जल, जाल से पृथ्वी उत्पन्न हुई हैं तथा इन्हीं उपयुक्त पञ्च तत्व आकाश, वायु, सूर्य (अग्नि), जल, पृथ्वी से ही चराचर ब्रह्माण्ड की श्रृष्टि होती हैं। ब्रह्माण्ड की रक्षा की लिये कूर्म पीठ पर नाना देव अवस्थान करते हैं, कारण सलिल में कूर्म नित्य विचरण करते रहते हैं। सत्य लोक में आकार हीना, महान ज्योति स्वरूप वाली, महाशक्ति आदि शक्ति माया स्वयं को आवृत कर विराजमान हैं, उन्हीं से समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुई हैं।

द्वैत रूपा, वे ही शिव तथा शक्ति के रूप में विराजमान हैं, श्रृष्टि विस्तार की कल्पना स्वरूप ब्रह्म संज्ञक पुत्र को जन्म देती हैं तथा अपने ही अंश से सावित्री को प्रकट कर अपने ब्रह्मा संज्ञक पुत्र को शक्ति रूप में प्रदान करती हैं। आदि शक्ति काली के आदेश से ही, सावित्री शक्ति के संग ब्रह्मा जी ने समस्त वेदों की रचना की तथा श्रृष्टि कर्ता के पद पर आसीन हुए।
साथ ही द्वितीय पुत्र रूप में, पालन कर्ता भगवान् विष्णु का भी इन्हीं आदि शक्ति काली से ही आविर्भाव हुआ हैं, उन्होंने ही श्री विद्या को अपने अंश से प्रकट कर, भगवान् विष्णु को शक्ति रूप में प्रदान की।
तृतीय स्वरूप में महामाया स्वयं महायोगी सदाशिव रूप में आविर्भूत हुई, उन्होंने सदा शिव की शक्ति होने के निमित्त अपनी इच्छा प्रकट की। परन्तु, सदा शिव द्वारा साक्षात् जन्मदात्री होने के कारण, अन्य किसी रूप में अवतरित होने के निवेदन स्वरूप, भुवनेश्वरी रूप में अवतरित हुई तथा सदा शिव की शक्ति बनी। उन्हीं भुवन सुंदरी का आश्रय ले सदाशिव सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के संहार का कार्य-भार का निर्वाह करते हैं।
रुद्र से संयुक्त हो, सूर्य तथा चन्द्रमा के तेज समान आदि शक्ति काली सत्य लोक में विराजित हैं तथा उन्हीं के अंश अनादि जीव हैं। स्थावरादि कीट, पशु-पक्षी, ८४ लक्ष योनि धारण करते हैं तथा उस के पश्चात् दुर्लभ मानव देह प्राप्त कर, धर्म-अधर्म का अधिपति हो जाता हैं। जन्म के पश्चात् मृत्यु होती हैं तथा जीव अपने कर्म पाश में आबद्ध हो या किये हुए कर्मों के अनुसार, नाना प्रकार के योनियों में जन्म धारण करते तथा मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं। जीव एक देह से अन्य देह को प्राप्त होता हैं तथा प्रत्येक जन्म के कर्म पाश से बंध जाता हैं, जिसका उसे परलोक तथा अन्य जन्म में फल भोग करना पड़ता हैं। देह त्याग के पश्चात्, तक्षण ही एक अन्य सूक्ष्म या माया देह उत्पन्न होती हैं, जो वायु रूप में आकाश में निराश्रय हो अवस्थित रहती हैं तथा पिंडदान के द्वारा उस वायु रूपी देह में स्थिरता आ जाती हैं। प्रथम पिंडदान से मस्तक का तथा क्रमशः शरीर के अन्य अंगों न निर्माण होता हैं, तदनंतर यमपुरी जा कर अपने धर्म तथा अधर्म जनित कर्मों का फल भोग कर, जब भोग समाप्त हो जाते हैं, तब जीव ब्रह्मशासन प्राप्त करता हैं। तदनंतर, भाग्य से वो दुर्लभ मनुष्य देह प्राप्त करता हैं।

शिव जी द्वारा ब्रह्माण्ड के स्वरूप तथा नाना लोकों का वर्णन।

जैसे मृत्यु लोक वासी मनुष्य पृथ्वी में रहते हैं उसी प्रकार देवता गान भी स्वर्ग में ही वास करते हैं, भूर्लोक में ब्रह्मा, भुवर्लोक में जनार्दन श्री विष्णु तथा स्वर्ग लोक में शंकर का वास हैं।
ब्रह्माण्ड के मध्य, सुमेरु पर्वत अवस्थित हैं, सुमेरु पर्वत के मध्य में मध्यधीरा नदी प्रवाहित रहती हैं तथा सुमेरु से ऊर्ध्व में सत्यलोक अवस्थित हैं, निम्न में रसातल विद्यमान हैं, सुमेरु के मध्य भाग में चतुर्दश भुवन तथा सप्त पाताल विद्यमान हैं। सत्य लोक के ऊर्ध्व में चतुर्दश भुवन तथा सप्त पाताल विद्यमान हैं, उससे ऊर्ध्व में ब्रह्मपद्म विद्यमान हैं तथा वहां चतुर्दल पद्म तथा निम्नमुखी धरा में विराजित हैं। पद्म के मध्य में मनोहर क्षितिचक्र अवस्थित हैं तथा वहां वलयाकार सप्त समुद्र सुशोभि त हैं। मध्य भाग में मनोरम चतुष्कोण आकृति वाला जम्बू द्वीप अवस्थित हैं। जहाँ त्रिकोण स्वरूपी मदन गृह स्थित हैं, जिसके अधिपति कामदेव हैं। उस स्थान में इंद्र 'लं' बीज तथा गजेन्द्र वाहन अवस्थित हैं। मदनालय त्रिकोण के मध्य में लिंग रूपी महेश्वर तथा सर्प रूपिणी माया शक्ति का निवास हैं तथा इनके वाम भाग में इंद्र बिज लं शोभित हैं। नाद के ऊपर अत्यंत सुन्दर ब्रह्मा जी का भवन हैं, जहाँ सृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी अपनी शक्ति सावित्री के साथ वास करते हैं, जो लक्ष योजन विस्तृत हैं।

गो-लोक तथा बैकुंठ

त्रिकोण के मध्य में छः कोष्ठ हैं, वे ही सर्वदेवाग्राज पर्वत रूप में अभिहित हैं, इस त्रिकोण के मध्य, बहार, पश्चात् तथा पूर्व में स्थावर, पर्वत, कीट, पशु-पक्षी, मनुष्य इत्यादि को देखा जा सकता हैं। त्रिकोण के बहार नाना पर्वत विद्यमान हैं, नीलाचल, मंदर, चंद्रशेखर, हिमालय, सुबेल, मलय तथा भस्म यह सभी सप्तकुल पर्वत चतुष्कोण में विद्यमान हैं। इन पर्वत समूहों पर नाना प्रकार के देवालय, दनावालय, तृण-लता, वृक्ष पद्म प्रभृति जन्म लेते तथा नष्ट होते रहते हैं।
पद्म के ऊर्ध्व देश में भीम पद्म नमक एक मनोहर पद्म स्थित हैं, उसके ६ पत्र, वृत्त तथा चार द्वार हैं। पद्म के मध्य भाग में, सिंदूर के सामान रक्तवर्ण भुवलोक शोभा पाता हैं, तथा इसके ऊपर श्री विष्णु का वास हैं, उनके वाम में लक्ष्मी तथा तथा दक्षिण में सरस्वती विराजित हैं, इसे वैकुण्ठ के नाम से जाना जाता हैं। वैकुण्ठ के दक्षिण भाग में सर्व मोहन कारी गो-लोक हैं, जहाँ की अधिष्ठात्री देवी श्री राधा हैं तथा द्वि भुजा धारी मुरलीधर श्री कृष्णा स्वामी हैं। नारद मुनि का का भी इसी लोक में वास हैं। वैकुण्ठ में मध्य तथा बाह्य में अनेक ज्योतिष्क परिदृष्ट होते हैं तथा नाना भोगों को भोगने वाली आत्मायें अवस्थित हैं। यहाँ मर्त्य गण भी स्तवन हेतु अवस्थान करते रहते हैं, इसे महा सत्वमय लोक के नाम से जाना जाता हैं। महा सत्वमाय लोक में सभी वैष्णव भक्त साक्षात् विष्णु के ही सामान पीतवस्त्र धारी, शांत, वनमाला धारण किये हुए हैं तथा विष्णु कीर्त्तन में मग्न हैं। गोलोक के समान अन्य कोई लोक नहीं हैं, यह धाम दिव्य तथा शुद्ध सत्वपूर्ण तथा वेदों से सुशोभित हैं, तथा वही पर कैलाश तथा ब्रह्म लोक की भी सत्ता स्थापित हैं। भगवान् विष्णु का भोग मंदिर गौ लोक के नाम से जाना जाता हैं, वहां द्वि भुज धरी मुरलीधर सर्वदा ही विद्यमान रहते हैं तथा भगवान् श्री विष्णु कभी साकार तथा कभी निराकार हो जाते हैं।
बीजकोष से बहार तोय मंडल वेष्टित हैं, विस्तृत रूप से इस स्थान पर जल होने पर क्षीर सागर होता हैं तथा यह जलमंडल धूम्र की ज्योति के समान हैं। यहाँ गंगादी नदी समूह, इन्द्रादि देवता गण सर्वदा ही स्तुति करते रहते हैं, नाग, गन्धर्व, यक्ष, कुष्मांड, भैरव इत्यादि सभी भक्ति युक्त हो, विष्णु स्तुति गान करते रहते हैं। वहां माल्वादि षट्-राग ओर ३६ रागिनियाँ मूर्त रूप से वेद गान करती रहती हैं।
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रुद्र लोक

इस पद्म के ऊर्ध्व में, महापद्म विराजित हैं जिसके दस नील पत्र हैं। इनके मध्य में व्योम (ल), जल (ऋ) अर्थात 'लृ' शोभित हैं, ये सभी पत्र बिंदु युक्त 'ड से फ' पर्यंत, दस वर्ण युक्त पक्ष, अत्यंत मनोहर तथा शोभा युक्त हैं। इनके मध्य बिज कोष में प्रसिद्ध वह्नि बिज 'रं' हैं, बहार नूतन सूर्य के समान त्रिभाग स्वस्तिक हैं, जिसमें 'ऐ' प्रज्वलित हैं। सभी देवताओं का निवास स्थान स्वर्ग लोक यही पर हैं, यहाँ देह (श), मेघ (ख), वाहन (य) तथा आकाश युक्त वह्नि बीज (रां) विद्यमान हैं तथा यहाँ मोह का नाश करने वाला रुद्रा लय भी हैं। यहाँ संहार रूपिणी भद्रकाली बाम भाग में सुशोभित हैं। गोलोक की तुलना में रुद्र लोक चतुर्गुण सुन्दर हैं, यह भस्मांग भूषण रुद्र से विभूषित लोक हैं। गोलोक पति भी, भक्ति परायण हो कर काली की स्तुति करते हैं तथा काली के ही अनुग्रह से वे श्री विष्णु लोक पालक हुए।

महर्लोक

पूर्वोक्त पद्म के ऊर्ध्व भाग में द्वादश पत्र से युक्त शोण वर्ण, विमल, सुन्दर पद्म शोभित हैं। पद्म के मध्य में शुद्ध सिंदूर के सामान जो बीज कोष हैं, उसका आकर षट्कोण मंडल के सामान हैं। मंडल के मध्य में वायु बीज 'यं' तथा चतुष्कोण जीव युक्त वायु बीज "लं" 'यं' से युक्त हो स्थापित हैं। यह लोक भुवनेश्वरी महा विद्या का हैं, यही पूजा का स्थान महर्लोक हैं तथा यहाँ योगी मानस योग करते हैं। यह स्थान स्फटिक से निर्मित हैं, सिंदूर से आरक्त हैं तथा यहाँ मानव ज्योति का दर्शन होता हैं। गोलोक से महर्लोक सौ गुना सुन्दर तथा मनोहर हैं तथा शतगुण विस्तृत हैं, यहाँ सब कुछ गो-लोक की अपेक्षा सौ गुना अधिक हैं। भगवान् शिव शिव निर्गुण हैं, अतः वे भुवनेशी के बिना स्पंदित भी नहीं हो सकते हैं। सामान्यतः ईश्वर निराकार हैं, तथापि वे पंगु हैं, देवी भुवनेश्वरी के आश्रय से ही वे क्षमतवान तथा सर्वव्यापी होते हैं, ये ही मोक्ष दायिनी हैं, विश्व जननी तथा पालन कर्त्री हैं।

जनलोक

महर्लोक के ऊर्ध्व, सर्वमोहन कारक, षोडश पत्र युक्त अन्धकार नाशक एक पद्म हैं तथा इस पद्म के मध्य में अतिसुन्दर जनलोक अवस्थित हैं। यह लोक मुनियों तथा स्तुति गायकों द्वारा शोभित हैं, गोलोक से लक्ष गुण दुर्लभ, देव सम्पन्न, मनोज्ञ तथा विस्तृत हैं। यह स्थान गोलोक से सभी प्रकार से लक्ष गुण अधिक गुणवान हैं, यहाँ मणिद्वीप रूपी बीज कोष में उत्तम षट्कोण यन्त्र विद्यमान हैं। इसके मध्य में सिंह के ऊपर गौरी देवी तथा इनके दक्षिण भाग में सदाशिव विराजित हैं। शिव त्रिनेत्र तथा पंचानन हैं, व्याघ्र चर्म धारी तथा मणि माला से अलंकृत हैं। वे मनुष्यों के मुक्तिदाता तथा ज्ञान प्रदाता हैं, अर्धनारीश्वर, कभी कभी ज्योतिर्मय तथा सर्वव्यापी हैं।

तपोलोक

जनलोक के ऊर्ध्व में पूर्ण चन्द्र के समान, मंडलाकार पत्र द्वययुक्त, अत्यंत दुर्लभ ज्ञान-पद्म अवस्थित हैं। इस पद्म के मध्य में नव कोण रूप दुर्लभ यन्त्र विद्यमान हैं तथा हंस रूप की अवस्थिति हैं। यह हंस पर-ब्रह्म स्वरूप शिव ही हैं तथा ॐ कार उनका चक्षु हैं, निगम तथा आगम दो पंख हैं। स्वर्ण पद्म से सुशोभित इस स्थान में हंस विहार करते रहते हैं तथा मणि-द्वीप में यहाँ हंस अवस्थित हैं। उनके बाम भाग में भद्रकाली अवस्थित हैं, इस स्थल पर ब्रह्मादी देवता तप करते हैं, कारणवश यह दुर्लभ तप लोक हैं। यह तपोलोक सभी प्रकार से गोलोक से चार लक्ष गुना अधिक श्रेष्ठ हैं, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ तथा शिव लोक में अवस्थित देव गण भी इस लोक को प्राप्त करने में असमर्थ हैं। महर्लोक में सालोक्य, जनलोक में सारुप्य, उससे अतिरिक्त लोकों में सायुज्य तथा उससे ऊर्ध्व में निर्वाण प्राप्त होता हैं।
गोलोक, वैकुण्ठ, रुद्र-लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक छः प्रकार के स्वर्ग हैं, शिव जी के अनुसार इसे जानकार ज्ञाता जीवन्मुक्त हो जाता हैं।

सत्य लोक की अधिष्ठात्री देवी महा काली।

ज्ञान पद्म के ऊर्ध्व में, सुमेरु के निम्न प्रदेश में विशाल सहस्त्र दल पद्म अवस्थित हैं, इस पद्म के पत्र समस्त प्रकार के शक्ति से सम्पन्न हैं तथा शुक्ल, रक्त, पित, कृष्ण तथा हरित वर्ण से शोभित हैं तथा क्षण क्षण में नाना वर्ण का द्योतन करते रहते हैं। यह पद्म सर्वदा ही नूतन नूतन रूप में सुशोभित होता रहता हैं, गोलोक के के समान प्रत्येक पत्र शोभायमान हैं। यहाँ लक्ष-लक्ष कृष्ण, शिव तथा ब्रह्मा विराजित हैं, इस लोक में प्रति क्षण असंख्य ब्राह्मणों का निर्माण होता रहता हैं। वे समस्त ब्रह्माण्ड चतुर्दश भुवन, सप्त पाताल तथा सप्त स्वर्ग युक्त हैं, कारणवश समस्त देह के भीतर भी चतुर्दश भुवनों की सत्ता हैं। प्रत्येक स्थूल तथा सूक्ष्म देह के अन्तः करण ब्रह्माण्ड तथा चतुर्दश भुवन विद्यमान हैं।
पद्म मध्यस्थ बीज कोष में चतुर्दश भुवन विद्यमान रहते हैं तथा इसमें समस्त देवताओं का आश्रय तथा नाना स्थान अवस्थित रहता हैं। स्वर्ग के दश दिक् का निर्माण, भगवान् विष्णु द्वारा हुआ हैं तथा दिक् समूह में चंद्रमंडल के समान तोय मंडल विद्यमान हैं। इसके मध्य भाग में कल्प वृक्ष हैं तथा कल्प वृक्ष के निकट ज्योतिर्मंडल अवस्थित हैं तथा उदय कालीन सूर्य के समान चार द्वारों से युक्त हैं। उसके मध्य में वेदिका के ऊपर रत्न सिंहासन स्थापित हैं जहाँ चणका-कृति महा काली (बगलामुखी देवी) तथा परमात्मा अवस्थान करते हैं। देवी स्वयं को आच्छादित कर, सम भाव से विराजित हैं, वही ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र हैं, केवल मात्र इनका स्वरूप ही भिन्न भिन्न हैं। जिनका मन नाना तत्व से आच्छन्न हैं, उन्हें मोक्ष नहीं प्राप्त होता हैं। सनातन विष्णु निर्गुण हैं, तथापि वे ब्राह्मण की सृष्टि करके सवीर-मूर्ति हैं तथा नाना जंतुओं का निर्माण करते हुए, सर्वदा विविध ब्रह्मांडों की रचना करते रहते हैं। निर्गुण उपासना में कोई ब्रह्मा, कोई विष्णु तथा कोई महेश हैं, कोई रुद्र हैं, परन्तु वास्तव में वह देव एक, निरंजन तथा आद्या शक्ति युक्त चणक रूप हैं।
वे इंद्रजाल की द्वीप स्वरूपा हैं, सूर्य-चन्द्र तथा अग्नि रूप हैं, महा-क्षोभी, विकार रहित तथा सत्य-सनातन हैं, सत्य लोक के बीज कोष में, मंगलमय चिंतामणि गृह के रत्न सिंहासन के ऊपर निरंजन स्वरुप आत्म ध्यान करना चाहिये।
महाकाली नित्य आनंद प्रदान करने वाली, कलि काल की प्रकाश कर्त्री, आद्या शक्ति तथा संपूर्ण देवताओं की सृष्टि करने वाली हैं, इन्हीं से ब्रह्मा प्रादुर्भूत तथा लीन होते हैं, जैसे जल बुद जल से निर्मित हो, जल में ही विलीन हो जाता हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड महा काली से उत्पन्न हो, प्रलय काल में उन्हीं में समा जाती हैं। जैसे विद्युत मेघ से उत्पन्न हो, मेघ में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ब्रह्मादि देवता कालिका से ही उत्पन्न होकर, पुनः उन्हीं में विलीन हो जाती हैं। देवी महा काली ही ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकर रूप में आविर्भूत होते हैं, उन्हीं का रूप हैं, शक्ति ज्ञान के अभाव में मोक्ष हास्यास्पद हैं। ब्रह्मादि देव गण, महाकाली से ही विस्तृत होते हैं तथा प्रलय काल में उन्हीं में लीन हो जाते हैं तथा काली का नाम सुनते ही यम, भयभीत हो कर पलायन करते हैं, परिणामस्वरूप काली दक्षिणा काली नाम से तीनों लोक में विख्यात हैं। पुरुष को दक्षिण तथा स्त्री को वामा कहते हैं, वामा की दक्षिण जिह्वा महा मोक्ष प्रदान करने वाली हैं, परिणामस्वरूप तीनों लोकों में उन्हें दक्षिणा कहा गया हैं, वे ही कालिका एवं जगत जननी हैं। साकार रूपी चणकाकारा देवी कलिका ही हैं, उन्हीं देवी का लोक सत्यलोक के नाम से जाना जाता हैं, जिसे प्राप्त करने की कामना समस्त देवता करते हैं। सहस्त्रदल पद्म के एक एक रूप में सहस्त्र गोलोक अवस्थिति हैं। इस पद्म के मध्य में कर्णिका हैं, उस के मध्य में बीज कोष तथा बीज कोष के मध्य में सुधा सागर विद्यमान रहता हैं। सत्यलोक में लक्ष योजन विस्तृत अत्यंत सुन्दर जल-मंडल विद्यमान हैं, जहाँ चतुर्दिक् पारिजात वृक्ष तथा कदम्ब वन सुशोभित हैं तथा इनके मध्य में कल्प वृक्ष हैं, जहाँ स्वर्ण प्राचीर द्वारा आवेष्टित तथा चार द्वारों से युक्त ज्योतिर्मय मंदिर हैं। वहाँ सहत्रों देवकन्या परिचर्या करती रहती हैं, उसके ऊपर रत्न जडित सिंहासन अवस्थित हैं, उसमें महा काली तथा महा रुद्र विराजमान रहते हैं।

कौलिक साधना सम्पन्न तत्व ज्ञान

दिव्य तथा वीर भाव सम्पन्न साधकों के लिये, मद्य, मत्स्य, मांस, मुद्रा तथा मैथुन ही मुक्ति के पञ्च तत्व हैं, मद्य पान से एश्वर्य तथा मोक्ष प्राप्त होता हैं, केवल मात्र मांस भक्षण से साक्षात् नारायण रूप की प्राप्ति होती हैं। मुद्रा सेवन से विष्णु रूपता तथा पृथ्वी में पूज्य होता हैं, मैथुन से महायोगी शिव के सामान हूँ जाता हैं। यह तत्व ज्ञान निर्वाण का कारण हैं, जहाँ पर ये सभी पञ्च तत्व मिलित हो जाता हैं, वहाँ शिव स्वयं गमन करते हैं तथा योगी शिव के ही सामान हैं। कामिका नारी मृत्यु के पश्चात् महा काली में लीन हो जाती हैं। जैसे जल, जल में ही विलीन हो जाता हैं, ठीक उसी प्रकार पञ्च तत्वों का सेवन करने वाले परमात्मा में विलीन हो जाते हैं, तत्व ज्ञान तथा सेवन के बिना मुक्ति नहीं मिलती। तत्त्वानुष्ठान, सर्वदा गुप्त रखना चाहिये, सांसारिक मनुष्य के गृह तथा दृष्टि क्षेत्र में कभी नहीं करना चाहिये। श्री चक्र का पूजन से कीर्ति, यश, मुक्ति सरलता से प्राप्त हो जाती हैं, उन पर देवी की कृपा रहती हैं। सहस्त्र अश्वमेघ तथा सत वाजपेय यज्ञ के अनुष्ठान से जो फल प्राप्त होता हैं, कौलिक साधना भी सामान फल प्रदान करता हैं। जो चक्र पूजन करते हैं, उनका अन्न मेरु पर्वत के समान विशाल संग्राहक हो जाता हैं, उनका जल बिंदु भी समुद्र के तुल्य हो जाता हैं।

वैष्णवों के पंच-तत्व

गुरु तत्व, मंत्र तत्व, वर्ण तत्व, देव तत्व तथा ध्यान तत्व वैष्णवों के पंच-तत्व हैं।
गुरु प्रदत्त मंत्र के द्वारा, देह में विद्यमान ब्रह्म तेज स्वरूप दीप को प्रज्वलित करना चाहिये, गुरु की आत्मा ही देव स्वरूप हैं। प्राणी का देह बत्ती के सामान हैं तथा ईश्वर की शक्ति ही अक्षरात्मिका हैं, वह वर्ण समूह मंत्र वर्ण में लीन हो जाता हैं, यही वर्ण तत्व हैं। स्वयं को ही देवी स्वरूप जाने तथा प्रत्येक तत्व जैसे तृण-गुल्म-लता प्रभृति पदार्थ में देवता का ही ध्यान करे। ध्यान के द्वारा सर्व प्राप्ति संभव हैं, इससे विष्णु सारूप्य प्राप्त होता हैं तथा सिद्धि प्राप्त होती हैं। इसका ज्ञान होने पर अमृतत्व की प्राप्ति हूति हैं ओर मानुष विष्णु रूप हो जाता हैं।