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जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से मुक्ति "मोक्ष"


मोक्ष एक विवेचना

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तैलंग स्वामी, १६०७-१८८७ई., २८० वर्ष की आयु में इन्होंने काशी में मोक्ष प्राप्त किया
काशी के सचल शिव

मुख्यतः भोग योनियाँ तीन मानी जाती हैं :

१. स्वर्ग : यहाँ जीवात्मा, देव योनि प्राप्त कर दिव्य भोगों को भोगता हैं, यह सूक्ष्म योनि हैं तथा यह ब्रह्म लोक से अनंत योजन तक विस्तृत हैं। ये केवल भोग योनि हैं, यहाँ किये गए अच्छे या बुरे कर्मों का कोई पाप-पुण्य नहीं होता हैं। मनुष्य अपने जीवित अवस्था में किये गए सुकर्मों के अनुसार यहाँ फल भोगता हैं, पुण्य के क्षीण होने के पश्चात् उसे पुनर्जन्म धारण करना पड़ता हैं।
२. मृत्यु लोक : जीवात्मा स्थूल रूप धारण कर मनुष्य योनि प्राप्त कर नाना कर्म करता हैं। इस योनि में किये गए कर्मों के अनुसार, मनुष्य पाप तथा पुण्य संचय करता हैं तथा पाप-पुण्य युक्त हो सूक्ष्म शरीर धारण करता हैं। पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्राणी मृत्यु लोक में रहते हैं, इस लोक में देह धारण करने पर मृत्यु या विनाश निश्चित हैं।
३. पाताल लोक : यह योनि सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों रूप में होते हैं , अत्यंत-घृणित कर्म, पापाचार करने वाले मनुष्य, नाना कीट-सर्पों के योनि को प्राप्त कर यातनाएं भोग करते हैं। पाप का भोग करने पर ये पुनः मनुष्य योनि प्राप्त करते हैं पुनः कर्म बंधन में बंधते हैं।
यह एक चक्र की तरह हैं जिसे आवागमन का चक्र कहा जाता हैं, जीवात्मा का जन्म-मृत्यु-जन्म ये चक्र चलता ही रहता हैं। जीवात्मा अपने कर्मों के अनुसार इस चक्र में ही पड़ा रहता हैं, इसी जन्म तथा मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने का मार्ग ‘मोक्ष’ का हैं, गीता में भगवान कृष्ण ने मनुष्य योनि प्राप्त करने का केवल ही ये उद्देश्य बताया हैं। ८४ लाख योनिओं में जन्म लेने के पश्चात जीवात्मा को मनुष्य योनि मोक्ष प्राप्त करने हेतु प्राप्त होती हैं, अब ये मनुष्य के ऊपर हैं की वो जीवन तथा मृत्यु के चक्र में पड़ा रहे या मोक्ष प्राप्त करें।

मोक्ष या मुक्ति के उपाय, १. निष्काम कर्म, २. भक्ति, ३. त्याग वैराग तपस्या उपासना ४. योग साधना तथा आत्म ज्ञान।

निष्काम कर्म : मनुष्य योनि प्राप्त कर कोई भी कर्म से अछूत नहीं रह सकता हैं, संपूर्ण जीवन काल कर्म से ही बद्ध हैं। मनुष्य नान प्रकार के भोगो को भोगने के लिए, अपने जीवन यापन हेतु कर्म करता हैं। कर्म के प्रकार ही मनुष्य के लिए मुक्ति या मोक्ष का पथ निर्दिष्ट करता हैं। मोक्ष का सर्वाधिक सरल उपाय हैं अथवा सर्वोत्तम मार्ग निष्काम-निःस्वार्थ कर्म हैं; किसी भी फल की अपेक्षा किये, कर्म में निहित रहना। सकाम कर्म करने वाला मनुष्य सर्वदा ही जन्म-मृत्यु के बंधन में बंधा ही रहता हैं। अहंकार-निंदा का पूर्ण रूप से त्याग निष्काम कर्म हेतु आवश्यक हैं, अहंकार युक्त मनुष्य सर्वदा ही दम्भी बना रहता हैं, उसके दृष्टि में भेद-भाव रहता हैं। सपने सम्पूर्ण कर्मों को प्रकृति में व्याप्त ब्रह्म तत्व-ईश्वर या इष्ट देव को समर्पित कर, निःस्वार्थ भाव से कर्म करना चाहिए। भगवान कृष्ण ने भागवत गीता में निष्काम कर्म योग को सर्वाधिक श्रेष्ठ तथा माना हैं; उन्होंने अर्जुन केवल सब कुछ उन (कृष्ण) पर समर्पित कर, अपने कर्तव्य के पालन का उपदेश दिया था। साथ ही मनुष्य को ये भी सर्वथा ध्यान रखना चाहिये कि वह कोई ऐसा कर्म न करें, जी उसके मुक्ति के मार्ग में अवरोध पैदा करें, जैसे किसी भी प्रकार से किसी का अहित करना, बिना उचित कारण के बिना किसी जीव को कष्ट देना तथा झूठ बोलना इत्यादि। इच्छा, कामना तथा वासनाओं का त्याग कर कर्म करना ही कर्म योग तथा मुक्ति का मार्ग हैं, कर्म करते हुए मनुष्य में विरक्ति भाव ही निष्काम कर्म की श्रेणी में प्रतिपादित होता हैं। बिना त्याग के निष्काम कर्म संभव नहीं हैं, संसार में रह कर, अपने सम्पूर्ण कर्मों का पालन करते हुए, सांसारिक मोह-माया से मुक्त होना ही निष्काम कर्म हैं।

भक्ति मार्ग

भक्ति मार्ग भी मोक्ष प्राप्त करने का एक उत्कृष्ट साधन हैं, भक्ति जिसे मीरा ने कृष्ण के निमित्त की थीं। आपने इष्ट के प्रति पूर्ण समर्पण, निष्ठा, आस्था मनुष्य के निष्काम कर्म मोक्ष प्रदान करने में सहायक हैं। भक्ति से ही तपस्या में सिद्धि प्राप्त होती हैं और निष्काम कर्म की तपस्या बहुत ही कठिन हैं, पग-पग पर मनुष्य के पथ भ्रष्ट होने की आशंका बनी रहती हैं। ज्ञान ही तपस्या के स्वरूप को निर्दिष्ट करती हैं, जब मनुष्य को ये ज्ञान ही न हो की सत-असतत कर्म क्या हैं वह सुकर्म कैसे कर सकता हैं ? अज्ञान के अन्धकार के दूर हुए बिना सत बुद्धि का विकास संभव नहीं हैं, मनुष्य यह ज्ञात करने में अ-सक्षम हैं की क्या उचित हैं और क्या अनुचित। समस्त प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी हैं जो विवेकशील हैं, उसे उचित तथा अनुचित का ज्ञान हैं, सत ज्ञान ही उसके इह लोक तथा परलोक का निर्माण करता हैं। ज्ञान सत तथा असत दोनों रूप में व्याप्त हैं; किसी को हानि पहुंचाने हेतु, रचा गया षड्यंत्र मानुष के कुबुद्धि से सम्बद्ध ज्ञान को दर्शाता हैं, असत ज्ञान प्रेरित हो इस तरह के जाल मनुष्य बिछाता हैं। सत ज्ञान ही अपने कर्तव्यों तथा उचित कर्मों से मनुष्य को अवगत करता हैं। सत्य, शाश्वत, निरंजन, निराकार, निर्विकार ज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति हेतु एक साधन हैं दुःख का मूल कारण अज्ञान ही हैं।
ईश्वर के प्रति अचल निष्ठा, भक्ति भाव, सत ज्ञान युक्त हो मानुष केवल निःस्वार्थ या निष्काम कर्म करना उच्च, श्रेष्ठ आचरण वाले मनुष्य के सुचरित्र का निर्माण करता हैं।
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योग साधना

इसके अलावा योग साधना एक ऐसा साधन हैं जिस से मनुष्य अपने शरीर का शुद्धिकरण करता हैं। वह अपने भीतर स्थित परमात्मा के अंश आत्मा को देखने में सक्षम हो पाता हैं, साथ ही योगी नाना प्रकार के शारीरिक विकारों से मुक्त होता हैं। मन तो केवल अपने आत्म तत्व पर लगा कर या ध्यान केन्द्रित कर, अत्यंत प्रबल इन्द्रियों के भटकाव को रोकने पर समर्थ होता हैं। इन्दिर्याँ बड़ी ही प्रबल हैं, सर्वदा ही मनुष्य को नाना प्रकार के मोह-माया में जबरन जकड़कर रखती हैं, मन पर नियंत्रण केवल मात्र योग साधना से हो सकती हैं। मनुष्य जब अपने शरीर में स्थित आत्म तत्व के साक्षात्कार में संलग्न रहता हैं, उसकी इन्द्रियां केवल आत्म तत्व पर ही केन्द्रित रहती हैं तथा आत्म-साक्षात्कार होने पर उसे उस ज्ञान की प्राप्ति होती हैं, जिसे वह इन्द्रियों के विषय-भोग को तुच्छ समझता हैं। एक योगी योग साधना में निपुण हो परम ज्ञानी, बुद्धिमान, आत्म-संयमी, भीतर तथा बहार से शुद्ध होता हैं, जो जीवात्मा के मोक्ष के मार्ग को खोल देती हैं। यह बहुत कठिन क्रिया हैं, परन्तु शरीर को स्वस्थ, निर्मल रखने हेतु ये ही सर्वोत्तम साधन हैं।
तपस्या, वस्तुतः जीवन के हर क्षेत्र में होती हैं, यही हमारे सफलता के मार्ग को सुनिश्चित करती हैं। अपने इष्ट या लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कर्म की ओर अग्रसर होना ही तपस्या हैं, इस पथ में नाना प्रकार की बाधाएं स्वतः ही आती हैं। इन बाधाओं को दूर कर अपने उद्देश्य की ओर बढ़ना ही तपस्या के सफलता को निर्दिष्ट करता हैं। ईश्वर या अपने इष्ट के पूजा-पाठ, जप-होमादी से सम्बंधित हो, विद्या अर्जन या फिर अपने परिवार के पालन पोषण हेतु इत्यादि किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु तपस्या करनी ही पड़ती हैं। योग साधना के क्रम में अपने इष्ट के प्रति तपस्या जैसे ध्यान, मन्त्र जप इत्यादि भी मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करती हैं, निष्काम कर्म योगी जो सर्वदा निःस्वार्थ भाव से जनमानस के कल्याण में संलग्न, अपने इष्ट का परम भक्त मोक्ष को प्राप्त करता हैं। ऐसे ही कर्म योगियों में एक बामा चरण चट्टोपाध्याय जिन्हें बामा खेपा के नाम से सभी जानते हैं, बाबा लोकनाथ, काशी के सचल शिव तैलंग स्वामी, राम प्रसाद सेन, राम कृष्ण परमहंस, शिर्डी के साईं बाबा इत्यादि पिछले कुछ सदियों में हुए हैं। जो निःस्वार्थ भाव से जन मानस की सेवा करते थे, अपने विचार तथा ज्ञान से इन्होंने समाज को एक नई दिशा प्रदान की, सर्वदा ही अपने इष्ट के भक्ति में संलग्न रहते थे तथा अंत में इन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
एक योगी या तपस्वी मन को संयम में रख कर, मोह माया का त्याग कर, अधिकतर समय ध्यान मग्न रहता हैं, एकाग्रचित्त होकर वो अपने अन्तः करण में आत्म-तत्व का साक्षात्कार करने में संलग्न रहता हैं। इस आत्म-तत्व के साक्षात्कार के निमित्त उसे बड़े ही कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता हैं, कई वर्षों के कठिन तपस्या के पश्चात् उसे सफलता प्राप्त होती हैं। वह अपने अन्तः करण में अपने इष्ट के दर्शन होते हैं, आत्म-तत्व से उस का साक्षात्कार होता हैं साथ ही उसे कई प्रकार की प्राकृतिक दिव्य शक्तियां भी प्राप्त होती हैं। ऐसे योगी मोक्ष के अधिकारी होते हैं।

1 comment:

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