एक अटल सत्य मृत्यु
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मृत्यु
मृत्यु एक अटल, ध्रुव सत्य हैं, जन्म से मृत्यु तक की यात्रा को ‘जीवन’ कहा जाता हैं, जहाँ शरीर हैं वहाँ मृत्यु अवश्य हैं। मानव देह या काया मूल पंच तत्वों के साथ सूक्ष्म अर्थात मन, कारण, आत्मा से निर्मित होती हैं। मनुष्य देह श्वास के द्वारा प्राण को शरीर के भीतर लेते हैं, मन आत्मा को स्थूल तथा सूक्ष्म कारण से जोड़ कर ही चेतन हो पता हैं। मृत्यु काल उपस्थित होने पर केवल प्राण जब शरीर से बहार निकल जाता हैं, तब ये तीनों अवस्थाएं भिन्न-भिन्न हो जाती हैं, परिणामस्वरूप देह की स्थूल अवस्था में मृत्यु हो जाती हैं। कारण रूपी आत्मा तथा सूक्ष्म मन दोनों देह धरी के देह को त्याग कर अनंत यात्रा हेतु प्रस्थान करती हैं, यह मृत्यु हैं। वस्तुतः शरीर का प्राण हीन होना ही मृत्यु हैं।मृत्यु के दो प्रकार हैं; प्राकृतिक तथा अप्राकृतिक।
१. प्राकृतिक मृत्यु : संसार के नियम अनुसार वृद्ध अवस्था अथवा शरीर के क्षीण होने पर मृत्यु।
२. अप्राकृतिक मृत्यु : जीवन काल में अचानक ही अपघात, मृत्यु कारक अस्वस्थता, दाह या जलकर, जल में डूब कर, आत्म-हत्या इत्यादि इस श्रेणी के अंतर्गत आते हैं।
मरानापन्न मनुष्य की अवस्था तथा मृत्यु।
संसार के समस्त प्राणी तथा मनुष्य नासिका द्वारा प्राण वायु शरीर के अन्दर लेता हैं तथा यह क्रिया जीवन पर्यंत चलती रहती हैं। सम्पूर्ण जीवन में श्वसन क्रिया चौरासी लाख बार होती हैं, इसके पश्चात् मृत्यु अवश्य आती हैं। यह स्वाभाविक हैं की मृत्यु से पूर्व मनुष्य को स्वयं ही आभास हो जाता हैं की उसका अंत समय निकट हैं। अंतिम समय पर मनुष्य के मन तथा चित्त में घबराहट होने लगती हैं, मनुष्य को अपने कुटुंब, घर-संसार, धन-सम्पदा इत्यादि की चिंता होती हैं, वह मोह-माया से मुक्त नहीं हो पता हैं। अंत समय आने पर मनुष्य को अपने जीवन में किये गए अच्छे-बुरे, पूर्ण-अपूर्ण इच्छा या कामना आदि याद आती हैं तथा मनुष्य मृत्यु से भागना चाहता हैं। मृत्यु काल में मनुष्य को अत्यधिक मानसिक तथा शारीरिक यातना भोगना पड़त हैं, वह नाना प्रकार के चिंताओं से ग्रस्त हो तड़पता हैं। उसकी स्थूल शरीर जाग्रत अवस्था होती हैं, तदनंतर वह स्वप्न अवस्था में चला जाता हैं, पर मस्तक में चेतना होने से वह चेतनीय स्वप्न अवस्था में होता हैं।अंततः मरानापन्न मनुष्य के प्राण की गति धीरे-धीरे क्षीण होने लगती हैं, परिणामस्वरूप उसके नाड़ियों में खिंचाव शुरू होता हैं। नाभि में कम्पन होने पर, नाभि से कंठ तक दुर्बलता आने लगती हैं, शरीर के भीतर के प्राण तथा अपान वायु आपस में टकराते हुए संघर्ष करने लगती हैं। नाभि में स्थित समान वायु के साथ प्राण और अपान वायु का संघर्ष होने लगता हैं, परिणामस्वरूप समान वायु भी असंतुलित हो दुर्बलता को प्राप्त होती हैं। ऊर्ध्व-श्वास प्राण, अपान तथा समान वायु ऊर्ध्व गति हो कंठ की ओर संचार करती हैं, मनुष्य के हाथ-पैरों में कम्पन होती हैं तथा वह झट-पटाने लता हैं। श्वास असंतुलित हो गति में अवरोध पैदा करती हैं, प्राण, अपान, समान वायु के दुर्बल होने के कारण मनुष्य को बैचैनी, घबराहट इत्यादि होती हैं। धीरे-धीरे वाह्य चेतना लुप्त होने लगती हैं, प्राण, अपान, समान वायु के असंतुलन के कारण, वायु कंठ के तरफ के उदान वायु से संघर्ष कर धक्का देने लगती हैं, परिणामस्वरूप उदान वायु क्षीण होने लगती हैं। मानुष को प्यास लगती हैं, उसका गला सूख जाता हैं अंततः वह धीरे-धीरे मौन होने लगता हैं। व्यान वायु भी उद्दाम होकर असंतुलित हो जाते हैं, शरीर में रक्त की गति मंद होने लगती हैं। तदनंतर, धीरे-धीरे शरीर के भीतर की नाड़ियाँ खींच कर प्राण सहित, आंतरिक वायु युक्त हो स्थूल शरीर का त्याग करने लगती हैं। शरीर का वह भाग जो दुर्बल होता हैं, जैसे आँख, नाक, मुंह, गुदा इत्यादि से प्राण वायु बहार जाने लगता हैं। इस प्रकार मनुष्य को अत्यंत तीव्र दैहिक तथा मानसिक वेदना को सहन करना पड़ता हैं। एक सहस्त्र सर्प दंश होने पर जो वेदना होती हैं, ऐसी ही वेदना प्राण के शरीर छोड़ते हुए होती हैं। मनुष्य को मूर्छा आ जाती हैं, उसके हाथ, पैर तथा अन्य शारीरिक अंग ठंडे होने लगते हैं, अंततः मनुष्य पूर्ण मूर्छित हो जाता हैं।
यह एक प्रकृति का नियम हैं, कि असहनीय पीड़ा शारीरिक तथा मानसिक दोनों मनुष्य को मूर्छित कर देती हैं। मृत्यु समय प्राण का त्याग करते हुए शरीर को अत्यधिक तीव्र वेदना होती हैं, शारीरिक तथा मानसिक सहन शक्ति वेदना के स्तर को सहन करने के पार चली जाती हैं, जिससे वह मूर्छित हो जाता हैं। मनुष्य की जाग्रत तथा स्वप्न अवस्था को पार कर, सुषुप्ति अवस्था होती हैं तथा वह गहन निद्रा में जाने लगता हैं। इस समय शरीर के भीतर तथा बहार की नौ वायु शरीर का त्याग कर दी हैं, केवल मात्र धनंजय वायु ही शरीर पर शेष रह जाती हैं। धनंजय वायु शरीर के पूर्ण रूप से नष्ट होने तक विद्यमान रहती हैं, जलकर या सड़कर। यह अवस्था मृत मनुष्य की होती हैं, रक्त संचालन तथा ह्रदय गति पूर्ण रूप से बंद हो जाती हैं, शरीर की आंतरिक क्रियाएं भी बंद हो जाती हैं। तदनंतर आत्मा स्थूल शरीर का त्याग कर, जीवात्मा के अच्छे-बुरे कर्मों के संग, समस्त संस्कारों को ले कर, सूक्ष्म रूप धारण कर अनंत यात्रा हेतु निकल पड़ती हैं। मनुष्य की प्राकृतिक मृत्यु वह होती हैं, जिसके अंतर्गत मन तथा आत्मा सूक्ष्म शरीर धारण कर देह के इन्द्रियों के सहारे निकलती हैं। गुदा या लिंग के द्वारा आत्मा का देह त्याग अधोगति को दर्शाता हैं, जिससे मृत्यु समय शरीर पेशाब इत्यादि करता हैं। आत्मा आँखों द्वारा निकलती हैं तो आँखें खुली रह जाती हैं और अगर मुँह द्वारा निकली हो तो मुँह खुला रह जाता हैं, नाक या कान द्वारा निकलने पर नाक, कान टेढ़े हो जाते हैं।
योग द्वारा अपने प्राण को शरीर से बहार प्रक्षेप करना, सर्वोत्तम गति।
एक योगी अपने कपाल (मस्तक), दोनों आँखों तथा भौवों के मध्य आज्ञा चक्र का भेदन कर आत्मा देह का त्याग कर अनंत यात्रा को निकलता हैं, यह गति उत्तम कही गई हैं, यह मोक्ष अवस्था भी मानी जाती हैं। आत्म साक्षातकारी योग में पारंगत योगी, अपने मस्तक के चोटी में स्थित सूक्ष्म छिद्र या ब्रह्मरंध्र का भेदन कर अपनी आत्मा को अंतरिक्ष परम तत्व में प्रक्षेप कर देता हैं, यह सर्वोत्तम कैवल्य गति कहती हैं। इस अवस्था में आत्मा कपाल के आज्ञा चक्र या सह-स्रगर चक्र का भेदन करती हैं, योगी के शरीर त्याग करते हुए मुक्त अवस्था होती हैं।
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स्थूल शरीर का त्याग कर आत्मा का सूक्ष्म शरीर धारण करना।
मृत्यु पश्चात्, जीवात्मा के मृत्यु समय की मानसिक स्थिति बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। उसके चिंतन, इच्छा, कामना, संकल्प इत्यादि जो भी उसके मन में मृत्यु समय उपस्थित थी, उसी के अनुसार जीवात्मा के सूक्ष्म शरीर का निर्माण होता हैं, जीवात्मा का भौतिक स्वरूप स्थूल शरीर के अनुसार ही रहता हैं। जीवात्मा तो सभी को देखने में सक्षम रहती हैं परन्तु पंच तत्व देह धारी मानव उसे नहीं देख पाते हैं। सूक्ष्म शरीर अपनी इच्छा अनुसार कभी भी विचरण करने में सक्षम होता हैं, कठोर तत्वों को भेदने की शक्ति उसमें होती हैं। जीवात्मा हवा के समान होता हैं, वह अपने मृत शरीर के आस-पास ही भटकता रहता हैं, शरीर के प्रति मोह का वह त्याग नहीं कर पता। सूक्ष्म रूप धारण कर जीवात्मा सभी तो देख तथा सुन सकता हैं परन्तु देह धरी मानव उस से किसी भी प्रकार संपर्क नहीं साध सकते हैं।शरीर के नष्ट होने तक दाह-संस्कार, सड़न तक वह जीवात्मा अपने शरीर के निकट ही रहता हैं तथा अपने प्रिय कुटुंब जनों या वासना-इच्छा के कारण वह घर, श्मशान, प्रियजनों के आस-पास घूमता रहता हैं। परन्तु वह कुछ भी करने में सक्षम नहीं हो पता हैं, बस देखता ही रहता हैं। सामान्यतः जीवात्मा २ वर्षों तक इसी स्थिति में रहता हैं।
अप्राकृतिक मृत्यु :
किसी भी कारण वश अचानक चेतना शून्य होने तथा मूर्छा आने के कारण, आत्मा शरीर का त्याग कर देती हैं। यह अत्यंत पीड़ा-युक्त होती हैं इसे अकाल मृत्यु कहते हैं, अपघात जैसे अग्नि में जलना, जल में डूबना, जहर खाना, शास्त्र-अस्त्र के प्रहार, फाँसी, दुर्घटना इत्यादि से जब मृत्यु होती हैं, तो अत्यंत ही उग्र, तीव्र वेदना का अनुभव करना पड़ता हैं। कुछ सावध, कुछ असावध अवस्था में सूक्ष्म शरीर के संग स्थूल शरीर के कुछ मोह, वासना, मोह इत्यादि सभी संस्कार ले कर सूक्ष्म शरीर, स्थूल शरीर का त्याग कर देती हैं। परिणामस्वरूप, मृत्यु के पश्चात् मृत शरीरी के कुछ जीवित कुछ मृत या चेतना हीन, तो कभी स्थूल कभी सूक्ष्म, कुछ जाग्रत कुछ स्वप्न अवस्था होने के कारण वह जीवात्मा अतृप्त रह जाती हैं। वह अतृप्त जीवात्मा प्रेत योनी धारण करती हैं तथा इसी रूप में दिखाई देती हैं, अपनी इच्छा अनुसार वे कुछ भी कर सकने में समर्थ हैं, उन्हें सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों ही शक्ति प्राप्त होती हैं। इस प्रकार की आत्माएँ जो अतृप्त रह जाती हैं, वासना युक्त हो विचरण करती हैं, क्रोधी तथा कपट जैसे अवगुण इनमें भरे हुए होते हैं। मुख तः ये तामसी प्रकृति के होते हैं, स्वार्थी होते हैं ऐसा नहीं हैं की वे पुनर्जन्म नहीं लेते, भटकते-भटकते हुए अनुकूल गर्भ प्राप्त होने पर या पूर्ण तृप्ति होने तक ये जन्म नहीं लेते हैं। अतृप्त जीव आत्माएं प्रथम स्थूल शरीर का त्याग करने के पश्चात्, अपनी इच्छा, कामना, संस्कारों के अनुरूप कामना या इच्छा शरीर धारण करते हैं तथा इच्छा पूर्ण होने पर सूक्ष्म शरीर धारण कर पुनर्जन्म लेते हैं।
वस्तुतः आम व्यक्ति जो अच्छे संस्कारों वाले होते हैं, पुण्यवान् होता हैं, वह बहुत जल्दी पुनर्जन्म ले लेते हैं, मृत्यु काल में उनकी कोई विशेष अतृप्ति नहीं रह जाती हैं। इसके विपरीत, अतृप्त आत्मा कई-कई वर्षों तक अपनी कामना-वासना के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करती रहती हैं। अतृप्त आत्माओं को अपनी वासना-कामना या इच्छा पूर्ति हेतु स्थूल शरीर के नितांत आवश्यकता होती हैं, कभी-कभी ये जीवित देह धारियों के शरीर में प्रवेश कर अपनी इच्छाओं को पूर्ण करती हैं तो कभी पुनर्जन्म धारण कर।
मृत्यु काल आने पर प्राणी का गला, नाभि तथा ह्रदय सुख जाता हैं तथा वह पीने को जल चाहता हैं, परन्तु अगर उसे पीने हेतु जल प्राप्त नहीं होता हैं तो ऐसे आत्माएँ नदी किनारे, जलाशय, पीपल के पुराने वृक्ष पर निवास करती हैं। जब तक उनका वर्ष श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं होता तब तक ये वही पर जल पी कर वास करते हैं। पीपल का वृक्ष प्राण वायु (ऑक्सीजन) ज्यादा उत्सर्ग करता हैं, यहाँ प्राण शक्ति प्रबल होती हैं, अतृप्त आत्माओं को यहाँ विशेष प्रकार से प्राण शक्ति तथा प्राकृतिक ऊर्जा तथा शांति प्राप्त होती हैं। सदाहरण मनुष्य जब पीपल के वृक्ष की पूजा-परिक्रमा-जल प्रदान करना इत्यादि करता हैं तब ये आत्माएँ ही उनकी मनोकामना पूर्ण करती हैं, उन्हें तृप्ति की प्राप्ति होती हैं, योगी भी इस वृक्ष की पूजा आराधना करते हैं।
संभवतः प्रेत योनी में अतृप्त आत्माएं, वासना-कामना युक्त जीवात्मायें रहते हैं, ये किसी भी दुर्बल (भौतिक तथा पारलौकिक) व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करने में सक्षम हैं।
अपने वासनाओं के अनुसार ये अच्छे या बुरे होते हैं क्रमशः जगत कल्याण युक्त कार्य या अकल्याण करते हैं। जो व्यक्ति अपने जीवित अवस्था में दान-पुण्य, योग-साधना, भागवत भजन इत्यादि पुण्य कर्म में संलग्न रहते हैं, वे कभी-कभी किसी मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर (परकाया प्रवेश) देवी-देवताओं के सहारे जन सदाहरण के अनेकों कल्याण कार्य करते हैं। कुछ एक दैवीय गुण सम्पन्न आत्माएं अपनी कामना के पूर्ण होने पर, सूक्ष्म शरीर में प्रवेश कर मुक्ति की और अग्रसर होते हैं।
जीवात्मा भी संस्कारों के अनुरूप स्थूल शरीर का त्याग करते हैं तथा उसी योनी में जन्म धारण करते हैं, सत गुण, रजो गुण तथा तमो गुण से युक्त पुनर्जन्म।
सत गुनी जीवात्मायें : ये वे आत्माएं होती हैं जो जीवित अवस्था या स्थूल शरीर युक्त होने पर सज्जन, परोपकारी, सत्य आचरण युक्त, सर्वदा कल्याण करने वाले तथा अच्छे कार्य करते हैं। नि स्वार्थ, दयावान्, शांत, धार्मिक प्रवृति युक्त ज्ञानी, परोपकारी इत्यादि गुण सम्पन्न मनुष्य सूक्ष्म देह धारण पश्चात् इस श्रेणी में आते हैं। ये आत्माएं अधिकतर एकांत तथा शांत स्थानों पर वास करते हैं, जनमानस के नाना कार्य करते हैं तथा दुष्टों-पापियों को दण्ड देने का कार्य भी करते हैं। इन आत्माओं का पुनर्जन्म ऊर्ध्व लोक या अच्छे, सात्विक, सम्पन्न लोगों के यहाँ होता हैं। ये आत्माएं स्वर्ग सुख का भी भोग करती हैं, ज्ञानी होने के कारण सूक्ष्म शरीर छोड़ मनोमय शरीर में प्रवेश करते हैं तथा आगे मनोमय शरीर का त्याग कर मोक्ष या मुक्ति प्राप्त करते हैं। ऐसे आत्माएं देवतुल्य मानी जाती हैं।
रजोगुण जीवात्मायें : जीवित अवस्था में स्वार्थ युक्त जीवन व्यतीत करने वाले इस श्रेणी में आते हैं, कारणवश ये मृत-आत्माएं अत्यंत मोह आसक्त तथा लोलुपता से युक्त होते हैं तथा अतृप्त तथा अशांत होते हैं। कामना, वासनाओं में लिप्त हो देह त्याग करने के कारण उन्हीं कामना या वासना युक्त सूक्ष्म देह धारण कर विचरण करते हैं तथा अपने अनुकूल शरीर में प्रवेश कर, उनसे नाना कार्य करवाते हैं या अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करते हैं। ये दयावान तथा कृपालु भी होते हैं, इनका सम्बन्ध अधिकतर मृत्यु लोक से रहता हैं, कामना-वासना जो अपूर्ण रही उसी अनुसार पुनर्जन्म लेते हैं, जीवन-मृत्यु के चक्र में ही बंधे रहते हैं। ये आत्माएं यक्ष, गन्धर्व, किन्नर इत्यादि सूक्ष्म तथा स्थूल दोनों रूप धारण कर रहते हैं।
तमोगुणी जीवात्मायें : जीवित काल में दुष्ट प्रवृति वाले, पाप कर्म में संलग्न, दुष्ट इस श्रेणी में आते हैं तथा सर्वदा ही अस्थिर, अशांत, प्रबल वासना युक्त, कपटी, हत्यारे, नाना प्रकार के पाप कर्म से युक्त होते हैं। इस श्रेणी की मृत-आत्माएं मनुष्य को वशीभूत कर उससे निकृष्ट कार्य करवाते हैं। भयंकर आपदा, अपघात इत्यादि दुर्योग पर ये प्रसन्न होते हैं, सूक्ष्म शरीर प्राप्त करने के पश्चात् ये प्रेत या भूत योनी प्राप्त करते हैं, ये अपनी इच्छा को ही प्रधानता देते हैं, ये अज्ञान के अंधकार में सर्वदा ही भटकते रहते हैं। इन मृत-आत्माओं को नरक यातना भोगनी पड़ती हैं, बेताल, पिशाच, प्रेत, हाकिनी, डाकिनी, शाकिनी, इत्यादि होते हैं, ये सर्वदा उत्पात मचाते रहते हैं।
प्रेत-आत्मा : मृत्यु पूर्वक शारीरिक वासना या कामना युक्त कणों से प्रेतात्मा बनता हैं, ये पृथ्वी पर ही वास करते हैं तथा मृत्यु लोक में ही रहना चाहते हैं। प्रथम स्थूल शरीर का त्याग करने के पश्चात वासना युक्त सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करते हैं, इच्छा-कामना को पूर्ण करने के पश्चात् सूक्ष्म शरीर धारण करते हैं इन्हें पूर्ण तृप्त की प्राप्ति होती हैं।
दस प्रकार के वायु : १. प्राण (श्वास-निश्वास रूप में), २. अपान (अशुद्ध वायु, गुदा के निकट), ३. समान (पाचन शक्ति, नाभि में स्थित), ४. उदान (संतुलित क्रिया, कंठ में स्थित), ५. व्यान (सम्पूर्ण शरीर के रक्त संचार संतुलन हेतु), ६. नाग वायु (व्याप्त शरीर), ७. कुर्म वायु (नेत्रों को खोलने तथा बंद करना), ८. कृकल वायु (डकार, पेट के वायु को बहार फेंकना), ९. देवदत्त वायु (जँभाई देकर शांति प्रदान), १०. धनंजय वायु (शरीर में नाद उत्पन्न करना)
पंच तत्व के अंश : १. पृथ्वी (अस्थि, त्वचा, मांस, रोम, नदियाँ), २. जल (लार, मूत्र, शुक्र, स्वेद, शोणित) ३. अग्नि (क्षुधा, तृष्णा, निद्रा, कांति) ४. वायु (भ्रमण, निरोध, आकुंचन, प्रसारण) ५. आकाश (राग, द्वेष, भय, लज्जा, मोह)
पंच अन्तः करण : १. मन (संकल्प, विकल्प, मनन) २. बुद्धि (विवेक, वैराग्य, शांति, संतोष, क्षमा) ३. अहंकार (अभिमान, अपना सुख, अपना दुःख, दंभ) ४. चित्त (मति, धृति, स्मृति, त्याग, स्वीकार) ५. चैतन्य (विमर्श, शीलन, धैर्य, चिंतन)
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १५ - ameya jaywant narvekar कामकलाकाल्याः प्राणायुताक्षरी मन्त्रः
ReplyDeleteओं ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं हूं छूीं स्त्रीं फ्रें क्रों क्षौं आं स्फों स्वाहा कामकलाकालि, ह्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं क्रीं ठः ठः दक्षिणकालिके, ऐं क्रीं ह्रीं हूं स्त्री फ्रे स्त्रीं ख भद्रकालि हूं हूं फट् फट् नमः स्वाहा भद्रकालि ओं ह्रीं ह्रीं हूं हूं भगवति श्मशानकालि नरकङ्कालमालाधारिणि ह्रीं क्रीं कुणपभोजिनि फ्रें फ्रें स्वाहा श्मशानकालि क्रीं हूं ह्रीं स्त्रीं श्रीं क्लीं फट् स्वाहा कालकालि, ओं फ्रें सिद्धिकरालि ह्रीं ह्रीं हूं स्त्रीं फ्रें नमः स्वाहा गुह्यकालि, ओं ओं हूं ह्रीं फ्रें छ्रीं स्त्रीं श्रीं क्रों नमो धनकाल्यै विकरालरूपिणि धनं देहि देहि दापय दापय क्षं क्षां क्षिं क्षीं क्षं क्षं क्षं क्षं क्ष्लं क्ष क्ष क्ष क्ष क्षः क्रों क्रोः आं ह्रीं ह्रीं हूं हूं नमो नमः फट् स्वाहा धनकालिके, ओं ऐं क्लीं ह्रीं हूं सिद्धिकाल्यै नमः सिद्धिकालि, ह्रीं चण्डाट्टहासनि जगद्ग्रसनकारिणि नरमुण्डमालिनि चण्डकालिके क्लीं श्रीं हूं फ्रें स्त्रीं छ्रीं फट् फट् स्वाहा चण्डकालिके नमः कमलवासिन्यै स्वाहालक्ष्मि ओं श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्री महालक्ष्म्यै नमः महालक्ष्मि, ह्रीं नमो भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा अन्नपूर्णे, ओं ह्रीं हूं उत्तिष्ठपुरुषि किं स्वपिषि भयं मे समुपस्थितं यदि शक्यमशक्यं वा क्रोधदुर्गे भगवति शमय स्वाहा हूं ह्रीं ओं, वनदुर्गे ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोरघोरतरतनुरूपे चट चट प्रचट प्रचट कह कह रम रम बन्ध बन्ध घातय घातय हूं फट् विजयाघोरे, ह्रीं पद्मावति स्वाहा पद्मावति, महिषमर्दिनि स्वाहा महिषमर्दिनि, ओं दुर्गे दुर्गे रक्षिणि स्वाहा जयदुर्गे, ओं ह्रीं दुं दुर्गायै स्वाहा, ऐं ह्रीं श्रीं ओं नमो भगवत मातङ्गेश्वरि सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सर्वदुष्टमृगवशङ्करि सर्वग्रहवशङ्करि सर्वसत्त्ववशङ्कर सर्वजनमनोहरि सर्वमुखरञ्जिनि सर्वराजवशङ्करि ameya jaywant narvekar सर्वलोकममुं मे वशमानय स्वाहा, राजमातङ्ग उच्छिष्टमातङ्गिनि हूं ह्रीं ओं क्लीं स्वाहा उच्छिष्टमातङ्गि, उच्छिष्टचाण्डालिनि सुमुखि देवि महापिशाचिनि ह्रीं ठः ठः ठः उच्छिष्टचाण्डालिनि, ओं ह्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां मुखं वाचं स्त म्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं नाशय ह्रीं ओं स्वाहा बगले, ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं धनलक्ष्मि ओं ह्रीं ऐं ह्रीं ओं सरस्वत्यै नमः सरस्वति, आ ह्रीं हूं भुवनेश्वरि, ओं ह्रीं श्रीं हूं क्लीं आं अश्वारूढायै फट् फट् स्वाहा अश्वारूढे, ओं ऐं ह्रीं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ऐं ह्रीं स्वाहा नित्यक्लिन्ने । स्त्रीं क्षमकलह्रहसयूं.... (बालाकूट)... (बगलाकूट )... ( त्वरिताकूट) जय भैरवि श्रीं ह्रीं ऐं ब्लूं ग्लौः अं आं इं राजदेवि राजलक्ष्मि ग्लं ग्लां ग्लिं ग्लीं ग्लुं ग्लूं ग्लं ग्लं ग्लू ग्लें ग्लैं ग्लों ग्लौं ग्ल: क्लीं श्रीं श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं पौं राजराजेश्वरि ज्वल ज्वल शूलिनि दुष्टग्रहं ग्रस स्वाहा शूलिनि, ह्रीं महाचण्डयोगेश्वरि श्रीं श्रीं श्रीं फट् फट् फट् फट् फट् जय महाचण्ड- योगेश्वरि, श्रीं ह्रीं क्लीं प्लूं ऐं ह्रीं क्लीं पौं क्षीं क्लीं सिद्धिलक्ष्म्यै नमः क्लीं पौं ह्रीं ऐं राज्यसिद्धिलक्ष्मि ओं क्रः हूं आं क्रों स्त्रीं हूं क्षौं ह्रां फट्... ( त्वरिताकूट )... (नक्षत्र- कूट )... सकहलमक्षखवूं ... ( ग्रहकूट )... म्लकहक्षरस्त्री... (काम्यकूट)... यम्लवी... (पार्श्वकूट)... (कामकूट)... ग्लक्षकमहव्यऊं हहव्यकऊं मफ़लहलहखफूं म्लव्य्रवऊं.... (शङ्खकूट )... म्लक्षकसहहूं क्षम्लब्रसहस्हक्षक्लस्त्रीं रक्षलहमसहकब्रूं... (मत्स्यकूट ).... (त्रिशूलकूट)... झसखग्रमऊ हृक्ष्मली ह्रीं ह्रीं हूं क्लीं स्त्रीं ऐं क्रौं छ्री फ्रें क्रीं ग्लक्षक- महव्यऊ हूं अघोरे सिद्धिं मे देहि दापय स्वाहा अघोरे, ओं नमश्चा ameya jaywant narvekar