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उत्तानपाद पुत्र ध्रुव चरित्र, कठोर तपस्या द्वारा भगवान् को प्रसन्न कर परम पद प्राप्ति।


मनु-नंदन उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव द्वारा भगवान् श्री जानार्दन की कठोर साधना कर, ध्रुव लोक को प्राप्त करना।

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नारद जी द्वारा बालक ध्रुव को दीक्षा दे आशीर्वाद प्रदान करना

अपनी सौतेली माता के कठोर वचन सुन, केवल छः मास की कठोर तपस्या कर भगवान् से सर्वोच्च पद प्राप्त करने वाले ध्रुव जी का चरित्र वर्णन।

राजा उत्तानपाद की पत्नी सुरुचि का अपने सौत के पुत्र ध्रुव को महाराज की गोद में बैठने हेतु मना करना तथा श्री हरि विष्णु की आराधना कर परम-पद को प्राप्त करने हेतु कहना।

एक दिन राजा उत्तानपाद, अपनी प्रिय पत्नी सुरुचि से उत्पन्न पुत्र ‘उत्तम’ क गोद में बैठा कर प्यार कर रहें थे, उस समय महाराज की द्वितीय पत्नी सुनीति से उत्पन्न पुत्र ध्रुव भी उनके पास आया और अपने पिता की गोद में बैठने की आशा प्रकट की। परन्तु, राजा उत्तानपाद ने उस का स्वागत नहीं किया; इस पर अभिमान से भरी हुई सुरुचि ने अपने सौत के पुत्र ध्रुव को महाराज के गोद में आते देख, महाराज के सामने ही उससे दाह भरे शब्दों में कहा ! “तू राजसिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं हैं, तू भी महाराज का पुत्र ही हैं परन्तु तुझे मैंने अपने कोख में धारण नहीं किया हैं, यदि तुझे राजसिंहासन की ही इच्छा हैं तो तपस्या कर श्री नारायण की आराधना कर, मेरे गर्भ में जन्म लें।”
इस पर ध्रुव को बड़ा ही क्रोध आया और उसके पिता परिस्थिति को चुप-चाप देखते रहें; तदनंतर वह पिता को छोड़ कर अपनी माता के पास गया। ध्रुव में सारी बात अपनी माता से कह सुनाई; इस पर उन्हें बड़ा दुःख हुआ तथा वे शोक से संतप्त होकर विलाप करने लगी।
सुनीति ने अपने पुत्र ध्रुव से कहा !
“तू दूसरों के लिए किसी प्रकार की अमंगल कामना नहीं कर, जो मनुष्य दुसरे को दुःख देता हैं उसको स्वयं ही उस कुकृत्य का फल भोगना पड़ता हैं। सुरुचि ने जो कहा वह सब उचित ही हैं, महाराज को मुझे दासी स्वीकार करने में भी लज्जा आती हैं, पत्नी तो दूर की बात हैं। तूने मेरे गर्भ से जन्म धारण किया हैं; अतः राजकुमार उत्तम के समान का पद चाहता हैं तो श्री अधोक्षज भगवान नारायण की आराधना पर लग जा। तेरे परदादा को उन्हीं श्री हरि नारायण की सेवा से सर्वश्रेष्ठ परम पद प्राप्त हुआ हैं। तेरे दादा स्वायम्भुव मनु ने भी उन्हीं भगवान की आराधना की थीं, और अति दुर्लभ लौकिक, अलौकिक तथा मोक्ष सुख को प्राप्त किया। तू भी उन भक्त वत्सल भगवन की शरण ले; जन्म-मृत्यु रूपी चक्र से मुक्ति चाहने वाले मुमुक्षु लोक उन्हीं भगवान् की आराधना करते हैं। तू अपने चित में श्री पुरुषोत्तम भगवान को बैठा ले तथा अन्य सभी का त्याग कर केवल मात्र उन्हीं का भजन कर; उन्हें छोड़ कर तेरे दुःख को दूर करने वाला और कोई नहीं हैं।”

अपनी सौतेली माता सुरुचि के कठोर वचन अनुसार तथा अपनी माता सुनीति के समझाने पर ध्रुव अपने पिता के नगर से निकल पड़े। नारद जी को जब ध्रुव को इस प्रकार जाते देखा तो वे उसके पास गए तथा अपना कर-कमल उनके मस्तक पर फेरते हुए मन ही मन विस्मित हुए और सोचने लगे; “क्षत्रियों का कैसा अद्भुत तेज हैं, यह बालक थोड़ा सा भी मान-भंग नहीं सह सका। ये नन्हा सा बालक को अपनी सौतेली माता का दूर-वचन घर कर गया हैं।”

नारद जी द्वारा गृह त्याग किये हुए ध्रुव को, परमार्थ-साधना के विचार का त्याग कर वापस जाने हेतु समझाना, ध्रुव की अडिग आस्था को देख नारद जी का उन्हें भगवान प्राप्ति हेतु दीक्षा देना, मार्ग प्रशस्त करना।

नारद जी ने ध्रुव को समझाया ! अभी तू खलने-कूदने वाली आयु का बालक हैं, इस कोमल आयु में कसी भी बात से तेरा सम्मान या अपमान नहीं हो सकता हैं। संसार के नियमों अनुसार प्रत्येक मानव अपने कर्म अनुसार मन-अपमान तथा सुख-दुःख आदि प्राप्त करता हैं। आपने माता के उपदेश से तू जिन भगवान श्री नारायण को प्रसन्न करने चला हैं वह सदाहरण पुरुषों हेतु कठिन तथा दुर्लभ हैं, संभव नहीं हैं। तू यथार्थ का हठ का त्याग कर, घर चला जा; बड़े होने पर परमार्थ-साधना हेतु प्रयत्न करना; विधाता के अनुसार सुख-दुःख जो भी प्राप्त हो, उसी से चित्त को संतुष्ट रख। मनुष्य हेतु उचित हैं कि; वह सर्वदा ही अपने से अधिक गुणवान को देख कर प्रसन्न हो तथा जो अपने से कम गुण वाला हो, उस पर दया भाव रखे तथा अपने समान गुण वाले के प्रति सम भाव या मित्रता रखें।
ध्रुव का नारद जो को उत्तर : सुख-दुःख से जिनका चित चंचल हो जाता हैं, उस चंचलता को शांत करने का आप ने बहुत अच्छा उपाय बताया हैं; मुझ जैसे अज्ञानी की दृष्टि वहां तक नहीं पहुँच पाती हैं। मुझे घोर क्षत्रिय स्वभाव प्राप्त हुआ हैं, अतएव मुझ में विनय का प्रायः अभाव ही हैं; माता सुरुचि ने अपने कटु वचन रूपी बाणों से मेरे हृदय को विदीर्ण कर दिया हैं, परिणामस्वरूप आप का यह उपदेश मेरे भीतर नहीं ठहर रहा हैं। त्रिलोक में सर्वाधिक श्रेष्ठ पद को में प्राप्त करना चाहता हूँ; कृपा कर आप मुझे कोई अच्छा सा मार्ग बताएं।

ध्रुव के स्थिर निश्चय किये हुए वचनों को सुनकर नारद जी को बड़ा ही हर्ष हुआ तथा उन्होंने ध्रुव से कहा !

तेरी माता सुनीति ने जो मार्ग तुझे बताया हैं; वही तेरे लिए परम-कल्याण का मार्ग हैं। एक मात्र श्री हरि वासुदेव के निमित्त अपने चित को लगाकर उनका भजन कर, धर्म, अर्थ काम और मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा रखने वाले प्रत्येक मनुष्य हो उन्हीं भगवान का शरणागत होना चाहिये। तू यमुना जी के तटवर्ती पवित्र मधुवन को जा, वही पर श्री हरि का नित्य निवास हैं। वहां श्री कालिंदी के निर्मल जल में तीनों समय स्नान कर, नित्यकर्म निवृत्त हो, यथाविधि आसन बिछा कर, स्थिर भाव से बैठना। तदनंतर, रेचक, पूरक और कुम्भक, इन तीन प्रकार के प्राणायाम से धीरे-धीरे प्राण, मन और इन्द्रिय के दोषों को दूर कर, धैर्य युक्त मन से परम गुरु श्री भगवान् का ध्यान इस प्रकार करना :

“भगवान् श्री हरि के मुख और नेत्र सर्वदा निरंतर प्रसन्न रहते हैं; उन्हें देख ऐसा प्रतीत होता हैं मानों की वे सर्वदा ही अपने भक्त को वर प्रदान करने हेतु उद्धत हैं। उनका मुखमंडल बहुत सुहाना हैं, समस्त देवताओं में वे सर्वाधिक मनोरम तथा सुन्दर हैं, उनकी तरुण अवस्था हैं; शरीर के सभी अंग बड़े सुडौल हैं, लाल-लाल होठ, रतनारे नेत्र हैं। प्रणतजनों को आश्रय देने वाले, अपार सुखदायक, शरणागत वत्सल और दया के समुद्र हैं। उनके वक्ष-स्थल में श्री वत्स का चिन्ह हैं; सजल जल धारा के समान श्याम वर्ण का उनका शारीरिक वर्ण हैं, गले में वन माला धारण किये हुए हैं और उनके चार भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित हैं। उनके अंग प्रत्यंग किरीट, कुंडल, केयूर और कंकणादि से विभूषित हैं; गले में कौस्तुभ मणि सुशोभित हैं; रेशमी पीताम्बर उन्होंने धारण कर रखा हैं। उनके कटी प्रदेश में करधनी तथा चरणों में सुवर्ण मय नूपुर सुशोभित हैं, उनका रूप बड़ा दर्शनीय हैं और मन को शांत, नयनों को आनंदित करने वाला हैं। उनकी आराधना करने वालो की वे अन्तःकरण में हृदय कमल की कर्णिका पर अपने नख-मणि मंडित मनोहर पादारविन्दों को स्थापित कर विराजित हैं।”

इस प्रकार ध्यान करते-करते जब तक चित उन्हीं में स्थित न हो जाये, एकाग्र न हो जाये, तब तक उन वरदायक प्रभु का मन ही मन ध्यान करना। इस प्रकार योग में स्थित हो भगवान् का निरंतर ध्यान करने पर योगी शीघ्र ही परमानंद में डूब जाता हैं और वहां से पुनः लौटता नहीं हैं।
इस प्रकार ध्यान करने के संग भगवान के मन्त्र जप का विधान भी नारद जी ने ध्रुव को बताया। साथ ही नाना प्रकार के सामग्रियों से भगवान के द्रव्य मय पूजा करने का भी विधान बताया। नारद जी के उपदेश को पाकर राजकुमार ध्रुव ने उनकी परिक्रमा की तथा उन्हें प्रणाम किया; तदनंतर उन्होंने परम पवित्र मधुवन की यात्रा की। ध्रुव के मधुवन गमन पश्चात, नारद जी, उत्तानपाद के महल में पहुँचे, इस पर राजा ने उनकी यथा-योग्य उपचारों से पूजा की तथा आसन पर बैठाया। नारद जी ने महाराज उत्तानपाद से कुशल-क्षेम पूछा।

बनारद जी का महाराज उत्तानपाद के महल में जाना, वहां पहुँच कर राजा को ध्रुव हेतु विलाप करते हुए देखना तथा समझाना।

महाराज उत्तानपाद ने नारद जी को उत्तर दिया ! “मैं बड़ा ही निर्दय हूँ ! मैंने अपने पाँच वर्ष के बालक को उनकी माता के संग घर से निकल दिया हैं। मुनिवर ! वह बालक बड़ा बुद्धिमान था, उसका कमल से मुख कुम्हला गया होगा, वह क्लांत हो भूख-प्यास से कही पड़ा होगा। उस असह्य बालक को वन के हिंसक जीव न खा जाए, वह बालक केवल मेरे गोद में बैठना चाहता था; परन्तु मैंने एक स्त्री के मोहित हो उस बालक का जरा सा भी आदर नहीं किया।"
इस प्रकार उत्तानपाद के विलाप युक्त वचनों को सुन कर नारद जी ने उनसे कहा – तुम अपने बालक की चिंता छोड़ दो, उनके तो साक्षात् श्री हरि भगवान् रक्षक हैं। उन उस नन्हे बालक के प्रभाव से अनभिज्ञ हो, उस का यश सम्पूर्ण जगत में फैलने वाला हैं। जिस कार्य को बड़े से बड़ा लोकपाल भी नहीं कर पाए हैं, उसे पूर्ण कर वह शीघ्र ही तुम्हारे पास लौट आयेगा, इस कारण तुम्हारें यश का भी बहुत विस्तार होगा। इस प्रकार नारद जी के वचनों को सुन राजा उत्तानपाद राज-पाट की ओर से उदासीन हो, सर्वदा ही पुत्र की चिंता में चिंतित हो गए।
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ध्रुव का कठोर तप तथा उससे उपस्थित स्थिति से चिंतित हो समस्त लोकपालों का भगवान् श्री हरि के पास जाना।

यहाँ ध्रुव मधुवन में पहुँच कर, यमुना जी में स्नान कर, नारद जी के बताये अनुसार एकाग्रचित हो, परमपुरुष श्री नारायण की उपासना करने लगे। प्रथम उन्होंने तीन-तीन रात्रों के अंतराल से शरीर निर्वाह हेतु केवल कैथ और बेर के फल का भक्षण कर श्री हरि की उपासना में एक मास व्यतीत किया। दूसरे माह छः-छः दिन के अंतराल पर सूखे घास खा कर भगवान् का भजन किया। तीसरे माह में, नौ-नौ दिन केवल जल पान कर समाधि-योग द्वारा श्री हरि की साधना की। चौथे माह श्वास पर विजय प्राप्त कर बारह-बारह दिन के पश्चात केवल वायु पान कर ध्यानयोग द्वारा भागवान की आराधना की। पांचवे मास में ध्रुव श्वास पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर परब्रह का चिंतन कर, एक पैर पर खम्भे के समान निश्चल भाव से खड़े रहे। इस स्थिति पर उन्होंने शब्दादि विषयों तथा इन्द्रियों नियामक अपने मन को सब ओर से हटा कर, हृदय में स्थित किया तथा श्री हरि के स्वरूप का चिन्तन करते हुए चित को कही भी भटकने नहीं दिया। उनके इस कठोर तप के परिणामस्वरूप महदादि सम्पूर्ण तत्वों के आधार और प्रकृति पुरुष के भी अधीश्वर परम-ब्रह्म की धारण की; उनके तेज को न सह कर तीनों लोक काँप गए। तदनंतर राजकुमार ध्रुव जब एक पैर से खड़े हुए, उनके अंगूठे से दब कर आधी पृथ्वी झुक गई, उन्होंने इन्द्रिय द्वार तथा प्राणों को रोककर अनन्य बुद्धि से केवल मात्र श्री हरि का ध्यान करने लगे। इस प्रकार उनकी समष्टि प्राण से अभिन्नता हो जाने के परिणामस्वरूप सभी जीवों का श्वास-प्रश्वास रुक गया, इससे समस्त लोकपालों को बड़ी पीड़ा हुई तथा वे सब घबरा कर श्री हरि के शरण में गए तथा सहायता हेतु प्रार्थना की।
श्री भागवान नारायण ने देवताओं से कहा ! तुम डरो मत। तुम सभी अपने-अपने लोकों को जाओ में उस बालक को इस दुष्कर तप से निवृत्त कर दूंगा। भगवान् से इस प्रकार आश्वासन पाकर समस्त लोकपाल अपने-अपने लोकों को चले गए। तदनंतर, भगवान विराट स्वरुप अपने गरुड़ पर आरूढ़ हुए और अपने भक्त से मिलने मधुवन पहुँचें। उस समय ध्रुव जी भगवान् की जिस मूर्ति का अपने हृदय कमल में स्मरण कर योग-साधना में मग्न रहते थे, सहसा वह विलीन हो गया और उन्होंने भगवान् को अपने सामने खड़ा पाया। उन्होंने पृथ्वी पर दंडवत उन्हें प्रणाम किया तथा हाथ जोड़ कर प्रभु के सामने खड़े हो गए। ध्रुव जी, भगवान् श्री हरि की स्तुति करना चाहते थे, परन्तु उन्हें यह ज्ञात नहीं था की कैसे स्तुति करते हैं। ध्रुव के मन की बात को जान कर भगवान् ने अपने शंख का स्पर्श ध्रुव के गले से करा दिया, शंख का स्पर्श होते ही उन्हें वेदमयी दिव्य वाणी प्राप्त हो गई; तदनंतर उन्होंने भगवान् की दिव्य स्तुति की।

बालक ध्रुव को श्री हरि नारायण द्वारा परम-पद (ध्रुव लोक) प्राप्त करना।

स्तुति करने के पश्चात, भक्त वत्सल भगवान्! ध्रुव से कहने लगे ! “उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजकुमार ! मुझे तेरे हृदय का संकल्प ज्ञात हैं। यद्यपि उस परम पद का प्राप्त होना बहुत कठिन हैं, परन्तु में तुझे वह सब देता हूँ।” जिस तेजोमय अविनाशी लोकों को आज तक किसी ने प्राप्त नहीं किया, जिसके चारों ओर ग्रह, नक्षत्र तथा तारागण चक्कर काटता हैं; अवांतर कल्पपर्यंत रहने वाले अन्य लोकों का नाश हो जाने पर भी जो अडिग रहता हैं तथा तारागण सहित धर्म, अग्नि, कश्यप और शुक्र, आदि नक्षत्र एवं सप्तर्षि गण जिसकी प्रदक्षिणा करते हैं, वह ध्रुव-लोक मैं तुझे प्रदान करता हूँ।
जब तेरे पिता तुझे राज सिंहासन प्रदान कर वन गामी होंगे, तब तू छत्तीस हजार वर्ष तक धर्म पूर्वक पृथ्वी का पालन करेगा। भविष्य में तेरा भाई ‘उत्तम’ शिकार खेलता हुआ मृत्यु को प्राप्त होगा, उस समय माता सुरुचि पुत्र प्रेम में पागल होकर उसे खोजने हेतु दावानल में प्रवेश कर जाएगी। यज्ञ मेरा साक्षात् स्वरूप ही हैं, तू अनेक बड़े-बड़े दक्षिणाओं वाले यज्ञों के द्वारा मेरा यजन करेगा तथा यहाँ सर्वोत्तम भोगों को भोग कर, अंत में मुझे ही प्राप्त होगा। तू अंत में सप्तऋषियों से भी ऊपर मेरे निज धाम को जायेगा, जहाँ पहुंचकर तुझे कभी फिर इस संसार में नहीं लौटना होगा। इस प्रकार ध्रुव को वरदान दे भगवान श्री हरि अपने धाम को चले गए। इसके पश्चात ध्रुव अपने नगर को वापस लौट आये। (ध्रुव तारे के रूप में आज भी ध्रुव आकाश में विद्यमान हैं) 

ध्रुव जी का अप्रसन्न चित तथा पिता ने महल में प्रवेश।

ध्रुव जी सारासार का पूर्ण विवेक रखते थे, उन्हें संकल्पित वस्तु प्राप्त हो गई थीं, किन्तु उनका चित विशेष प्रसन्न नहीं हुआ था। उनका हृदय अपनी सौतेली माता के वाग्बानों से बिंध गया था तथा भगवान् से वर प्राप्त करते हुए भी, उन्हें माता का स्मरण बना हुआ था। परिणामस्वरूप उन्होंने भगवान् से मुक्ति नहीं मांगी। ध्रुव जी मन ही मन सोचने लगे, सनकादि ऋषि भी जिन्हें समाधि द्वारा अनेक जन्मों के अर्जन पुण्य से प्राप्त कर पाते हैं; वह भगवच्चरणों की छाया को मैंने छः माह में ही प्राप्त कर लिया हैं; किन्तु चित्त में अन्य वासना के कारण में उनसे पुनः दूर हो गया हूँ। मैंने उनके चरणों में पहुँच कर भी नाशवान वस्तु की याचना की। संसार में आत्मा के अलावा दूसरा कोई भी सत्य नहीं हैं, मनुष्य जैसे स्वप्न में ही व्याघ्र आदि से डरता हैं; उसी प्रकार मैं भी माया से मोहित हो, भाई-सौतेली माता को शत्रु मन लिया तथा व्यर्थ ही द्वेष करने लगा। संसार-बंधन का नाश करने वाले प्रभु श्री हरि से मैंने संसार ही माँगा।
इधर राजा उत्तानपाद को जब ज्ञात हुआ की उनका पुत्र ध्रुव घर लौट रहा हैं; सर्वप्रथम तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ; परन्तु उन्हें देवर्षि नारद की बातों का स्मरण हो आया। उन्होंने पुत्र उत्तम तथा रानियों सहित ध्रुव को लाने हेतु प्रस्थान किया; ध्रुव जी उपवन के पास ही पहुँचे थे; उन्हें देखकर राजा उत्तानपाद तुरंत रथ से उतरे तथा ध्रुव को भुजाओं में भर लिया। तदनंतर ध्रुव जी ने अपने पिता के चरणों में पड़ कर प्रणाम किया, उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर अपनी दोनों माताओं को भी प्रणाम किया। महाराज उत्तानपाद अपने पुत्र उत्तम के संग ध्रुव को ले, हथिनी पर चढ़कर, बड़े ही हर्ष के साथ अपने नगर में प्रवेश किया। नगर में प्रवेश करते हुए उनका नगर वासियों ने नाना प्रकार से स्वागत किया तथा मनोहर गीत गाते हुए ध्रुव जी को उनके पिता के भवन में प्रवेश करवाया। नाना प्रकार के सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण उस महल में वे आनंदपूर्वक रहने लगे, जैसे स्वर्ग के देवता रहते हैं। ध्रुव के तरुण अवस्था को प्राप्त होने पर; प्रजा के अनुराग को देखते हुए, अमात्यवर्ग के उन्हें आदर की दृष्टि से देखने के कारण, उन्हें अपना राजसिंहासन प्रदान किया। अपनी वृद्ध अवस्था आई जान कर वे आत्म स्वरूप का चिंतन करते हुए संसार से विरक्त हो वन चले गए।

उत्तम का मारा जाना तथा ध्रुव का यक्षों के संग युद्ध, यक्षों द्वारा आसुरी माया जाल दिखा कर ध्रुव को डराने का प्रयत्न करना।

ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री 'भ्रमि' के साथ विवाह किया तथा उनसे उन्हें ‘कल्प और वत्सर’ नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। ध्रुव ने दूसरा विवाह वायु पुत्री ‘इला’ से किया तथा उनसे उनके ‘उत्कल’ नामक एक पुत्र तथा एक कन्या का जन्म हुआ। ध्रुव के भाई उत्तम का अभी विवाह नहीं हुआ था कि वह एक दिन शिकार हेतु गया तथा उसे हिमालय पर एक बलवान यक्ष ने मार डाला। इस घटना को उसकी माता न सह पाई तथा वह भी परलोक को सिधार गई।
ध्रुव ने जब ये समाचार सुना तो वे क्रोध, उद्वेग और शोक से युक्त हो, रथ पर स्वर हो उस यक्षों के राज्य में पहुँचे। उत्तर दिशा की और जाकर, हिमालय के घाटी में उन्होंने यक्षों से भरी हुई अलका पूरी देखी; जहाँ अनेक भूत, प्रेत, पिशाच, रुद्रानुचार निवास करते थे। वहां पहुँच कर सम्पूर्ण दिशा को विदीर्ण करने वाले शंख को ध्रुव ने बजाय, जिससे यक्षों की पत्नियां बहुत दर गई। महा बलवान यक्षों को वह शंख ध्वनि सहन न हुआ तथा वे नाना प्रकार के अस्त-शास्त्र ले ध्रुव पर टूट पड़े; ध्रुव प्रचंड धनुर्धर थे। अपने धनुष से ध्रुव ने प्रत्येक यक्ष के मस्तक पर एक ही बार में तीन-तीन बाण मरे, इस प्रकार बाणों से व्यथित होने पर उन यक्षों को विश्वास हो गया की उनकी पराजय निश्चित हैं। यक्षों की संख्या १३ अयुत थीं, उन्होंने भी हार न मानते हुए, ध्रुव के वाणों के उत्तर में छः-छः बाण छोड़े। उन यक्षों ने अत्यंत कुपित हो ध्रुव जी पर परिध, खाद, प्रास, त्रिशूल, फरसा, शक्ति, ऋष्टि, भुशुण्डी तथा नाना प्रकार के बाणों की वर्षा की। भीषण अस्त्र-शास्त्र की वर्ष के कारण ध्रुव जी अदृश्य से प्रतीत होने लगे; इस पर यक्ष विजय की घोषणा करते हुए, युद्ध भूमि में सिंह की तरह गरजने लगे। एकाएक ध्रुव जी का रथ उनके सामने प्रकट हुआ, उन्होंने अपने धनुष की टंकार से शत्रुओं के हृदय विदीर्ण कर दिए तथा प्रचंड बाणों की वर्षा कर; यक्षों द्वारा छोड़े हुए सभी अस्त्र-शास्त्रों को छिन्न-भिन्न कर दिया। महाराज ध्रुव के बाणों से कटे हुए यक्षों के मस्तक, जांघें, बाहु तथा नाना शारीरिक अंग और नाना प्रकार के आभूषण रणभूमि में बिखर गई थीं। जो यक्ष जीवित रह गए, वे युद्ध भूमि से भाग गए।
ध्रुव जी ने देखा की उस विस्तृत रण-भूमि में एक भी शत्रु उनके सामने नहीं हैं, तो उनकी इच्छा उनकी अलकापुरी देखने की हुई। परन्तु मायावी आगे क्या करेंगे ये सोच कर वे रथ में ही बैठ कर शत्रु के नवीन आक्रमण की आशंका से सावधान हो गए। थोड़े देर पश्चात भीषण आंधी का शब्द सुनाई दिया, दिशाओं से उड़ती हुई धुल चारों और दिखाई देने लगा, क्षण भर में ही आकाश मेघों से घिर गया, चारों और भयंकर गड़गड़ाहट के संग बिजली चमकने लगी। आश्चर्य की बात हो यह थीं की उन बादलों से खून, कफ, पीब, विष्ठा, मूत्र एवं चर्बी की वर्षा होने लगी, आकाश से ध्रुव जी के ऊपर मनुष्य के कटे हुए धड़ गिरने लगे। तदनंतर, आकाश में एक विशाल पर्वत दिखाई दिया और सभी ओरों से पत्थरों की वर्षा होने लगी, साथ ही गदा, परिध, तलवार और मूसल भी गिरने लगे। बहुत से विषैले सर्प वज्र की तरह फुंकार मारते हुए अपनी नेत्रों से आग की चिंगारियां उगलने लगी; झुण्ड के झुण्ड मतवाले हाथी, सिंह, बाघ इत्यादि हिंसक जीव भी दौड़ कर ध्रुव जी से सन्मुख आने लगे। आसुरी माया से ऐसे नाना प्रकार के कौतुक, उन यक्षों ने ध्रुव जी को डराने हेतु दिखाए, जिससे की वे कायरों की तरह भाग जाये।
यह देख कुछ मुनि गण उस स्थान पर आयें और ध्रुव जी हेतु भगवान् से मंगल कामना की। ऋषियों का कथन सुन, महाराज ध्रुव ने आचमन कर श्री हरि नारायण के बनाये हुए नारायण अस्त्र को अपने धनुष पर चढ़ाया। उस बाण के प्रभाव से यक्षों की रची गई माया क्षण भर में ही नष्ट हो गई तथा चलाने पर समस्त शत्रुओं को बेचैन कर दिया, इस प्रकार सभी यक्ष अत्यंत कुपित हो अपने अस्त्र-शास्त्रों को पुनः उठाया और ध्रुव जी पर टूट पड़े। ध्रुव जी ने उन यक्षों को आते देख अपने बाणों द्वारा उनका अंत कर, सत्य लोक में भेज दिया।  

ध्रुव जी के पितामह स्वायम्भुव मनु ने देखा की ध्रुव अनेक निरपराध यक्षों को मार रहें हैं, इस पर उन्हें यक्षों पर बड़ी दया आई। वे ऋषियों के साथ युद्ध भूमि पर पधारे तथा अपने पौत्र ध्रुव को समझाने लगे !
बेटा ! अधिक क्रोध करना ठीक नहीं हैं, यह पाप हैं और नरक का द्वार हैं तथा इसी के वशीभूत होकर तुमने इन निरपराध यक्षों का वध किया हैं। तुम्हारा यह कर्म कुल की मर्यादा के अनुरूप नहीं हैं, तुम्हारा अपने भाई पर बहुत अनुराग था, परन्तु एक यक्ष के अपराध पर तुमने ना जाने कितनों की हत्या कर दी। पशुओं की भांति प्राणियों की हिंसा करना भगवत्सेवी साधुजनों हेतु कदापि उचित नहीं हैं। तुमने प्रभु की आराधना कर वह परम-पद प्राप्त किया हैं, जिसे कोई और नहीं प्राप्त कर सकता हैं; तुम्हें प्रभु श्री हरि अपना प्रिय भक्त समझते हैं तथा सभी भक्तजन तुम्हारा आदर करते हैं। तुम तो साधु जनों के पथ प्रदर्शक हो, फिर तुमने ऐसा निंदनीय कर्म कैसे किया ? पञ्च भूतों से ही स्त्री-पुरुष का आविर्भाव होता हैं, तदनंतर उनके समागम से ही दूसरे स्त्री-पुरुष उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार भगवान की माया से सत्त्व आदि गुणों में न्यूनाधिक भाव होने से जैसे भूतों द्वारा शरीरों की रचना होती हैं, वैसे ही उनकी स्थिति तथा प्रलय भी होते हैं। निर्गुण परमात्मा तो इन में केवल निमित्त मात्र हैं; उनके आश्रय से यह कार्य कारणात्मक जगत उसी प्रकार भ्रमता रहता हैं, जैसे चुम्बक के आश्रय से लोहा

मनुष्य अपने कर्म अनुसार सुख-दुखादि फलों को भोगते हैं; सर्व समर्थ श्री हरि कर्म बंधन में बंधे हुए जीव की आयु की वृद्धि और क्षय का विधान करते हुए भी स्वयं इन दोनों से रहित हैं। इस परमात्मा को ही मीमांसक जन कर्म, चावार्क, स्वभाव, वैशेषिक, मातावलम्बी काल, ज्योतिषी देव और काम शास्त्री काम कहते हैं; वे किसी भी इन्द्रिय या प्रमाण के विषय नहीं हैं। महदादि अनेक शक्तियों भी उन्हीं से प्रकट हुई हैं। ये कुबेर के अनुचर तुम्हारे भाई को मरने वाले नहीं हैं, मनुष्य के जन्म तथा मृत्यु के वास्तविक कारण तो स्वयं ईश्वर ही हैं। एक मात्र वे ही इस संसार की रचना, पालन तथा संहार करते हैं; परन्तु अहंकार शून्य होने के कारण वे कर्मों तथा गुण से निर्लेप रहते हैं। वे ही सम्पूर्ण प्राणियों के अंतरात्मा में स्थित हैं, नियंता और रक्षा करने वाले श्री हरि ही अपनी माया से युक्त हो समस्त जीवों का सृजन, पालन तथा संहार करते हैं; वे ही संसार के एक मात्र आश्रय हैं। तुम सभी प्रकार से उसी परमात्मा की शरण लो, जिन हृषिकेश भगवान् की साधना कर तुमने ध्रुव पड़ प्राप्त किया हैं; जो तुम्हारे हृदय में वात्सल्य वश विशेष रूप से विराजमान हैं, उन निर्गुण अद्वितीय अविनाशी और नित्यमुक्त परमात्मा को अध्यात्म दृष्टि से अपने अतः करण में खोजो। जिस प्रकार औषधि से क्रोध शांत होता हैं ठीक उसी प्रकार मेरे वचनों से तुम अपने क्रोध को शांत करो। तुमने यह सोच कि यक्ष मेरे भाई को मरने वाले हैं; बहुत यक्षों का संहार किया हैं, इससे तुम्हारे ऊपर शंकर जी के मित्र यक्षराज कुबेर के प्रति बड़ा अपराध हुआ हैं। जब तक महापुरुष का तेज तुम्हारे कुल को आक्रांत नहीं कर लेता हैं, इससे पहले तुम अपने विनम्रता से उन्हें प्रसन्न कर लो। इस प्रकार के अपने दादा के वचन सुनकर ध्रुव का क्रोध शांत हुआ तथा वे अपने नगर में चले गए

ध्रुव जी को कुबेर जी का वरदान तथा राज-पाट अपने पुत्र ‘उत्कल’ को दे बद्रिकाश्रम जा विष्णु लोक में जाना या मोक्ष प्राप्त करना।

ध्रुव का क्रोध शांत हो गया, यह जान कर यक्ष राज कुबेर वहां पर आयें; उन्हें देखते ही ध्रुव जी हाथ जोड़े खड़े हो गए। कुबेर जी ने ध्रुव से कहा ! तुमने अपने दादा के उपदेश पर अमल कर, भयंकर वैर का त्याग कर दिया हैं; मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में न ही यक्षों ने तुम्हारे भाई को मारा हैं और न ही तुमने यक्षों को मारा हैं; समस्त जीवों की उत्पत्ति तथा विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही हैं। यह ‘मैं-तू’ इत्यादि मिथ्या बुद्धि तो जीव को अज्ञानवश प्राप्त होती हैं; यही मनुष्य को बंधन एवं दुखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति कराता हैं। अब तुम संसार पाश बंधन से मुक्त होने हेतु सभी जीवों में सम-दृष्टि रख कर सर्वभूत आत्मा श्री हरि का भजन करों। मैंने सुना हैं तुम सर्वदा भगवान कमलनाभ के चरण कमल के निकट रहने वाले हो; तुम मुझ से अवश्य ही वर पाने योग्य हो ! तुम्हें जिस भी वर की आशा हो, निःसंकोच हो कर मांग लो। महाराज ध्रुव ने श्री हरि की अखंड स्मृति रहने का वर कुबेर जी से माँगा; इडविडा के पुत्र कुबेर जी अति प्रसन्न हो ध्रुव को भगवत स्मृति प्रदान की और अंतर्ध्यान हो गए। ध्रुव जी अपने राजधानी में रहते हुए, बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से यज्ञ पुरुष की आराधना की तथा अपने में और समस्त प्राणियों में उन्होंने अच्युत श्री भगवान् को ही विराजमान देखा। प्रजा ध्रुव जी को साक्षात् पिता मानती थीं, नाना प्रकार के ऐश्वर्य युक्त पुण्य का और भोगों के त्याग पूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने ३६ हजार वर्षों तक पृथ्वी का शासन किया। इसके पश्चात उन्होंने अपने पुत्र ‘उत्कल’ को राज्य का कार्य सौंप दिया तथा बद्रिकाश्रम चले गए। वहां उन्होंने पवित्र जल में स्नान कर इन्द्रियों को शांत किया, फिर आसन से बैठकर प्राणायाम द्वारा वायु को वश में कर, मन को वाह्य विषयों से हटा कर भगवान् के स्थूल स्वरूप में स्थित कर दिया तथा समधी में लीन हो गए।
उन्हें लेने हेतु आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरा तथा उस विमान पर दो पार्षद ‘सुनंदन और नंदन’ खड़े थे। भगवान् श्री हरि का पार्षद समझ कर ध्रुव जी ने उन दोनों को प्रणाम किया। उन दोनों पार्षदों ने ध्रुव जी से कहा ! राजन ! आप सावधान होकर हमारी बातें सुने। आप ने पाँच वर्ष की आयु में सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था, हम उन्हीं भगवान् के सेवक हैं तथा आप को भगवान् के धाम में ले जाने हेतु आयें हैं। आप ने अपनी भक्ति से विष्णु लोक को प्राप्त किया हैं, जो बहुत ही दुर्लभ हैं; परमज्ञानी सप्तऋषि गण भी वहां तक नहीं पहुँच पाए हैं। सूर्य, समस्त ग्रह, तारे-नक्षत्र इत्यादि भी उस परम लोक की प्रदक्षिणा करते हैं, आब आप हमारे साथ चले और वहां निवास करें। यह श्रेष्ठ विमान श्री हरि ने ही आप के लिए भेजा हैं। इस प्रकार भगवान् के पार्षदों का वचन सुनकर ध्रुव जी ने स्नान किया तथा संध्या-वंदना इत्यादि नित्यकर्म से निवृत्त हो, बद्रिका क्षेत्र में रहने वाले मुनियों से आशीर्वाद लिया। जैसे ही वे उस विमान पर चढ़ने हेतु उद्धत हुए, उन्होंने देखा की काल मूर्तिमान होकर उनके सामने खड़ा हैं। तदनंतर वे काल के मस्तक पर पैर रख कर उस विमान पर चढ़े, उस समय गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी।
जैसे ही ध्रुव जी विमान पर चढ़ वैकुण्ठ को जाने लगे, उन्हें अपनी माता सुनीति का स्मरण हो आया; वे सोचने लगे क्या में अकेले ही दुर्लभ वैकुण्ठ को जाऊंगा ? नन्द और सुनंद तक्षण ही ध्रुव के मन की बात जान गए और उन्होंने ध्रुव को बताया की आगे-आगे उनकी माता दूसरे विमान पर जा रहीं हैं। तदनंतर, ध्रुव जी ने समस्त लोकों को पार करते हुए, सबसे ऊपर भगवान् विष्णु के धाम में पहुंचे।

स्व्याम्भुव मनु के वंश तथा जगत में नाना जीवों के अस्तित्व का वर्णन।


पृथ्वी में मनुष्य तथा अन्य प्राणियों के जन्म का विवरण, ब्रह्मा जी से समस्त देहधारियों की श्रृष्टि।

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समस्त देह देह-धारियों के पितामह " ब्रह्मा जी"

मनु तथा शतरूपा का ब्रह्मा जी से प्रकट होना।

जगत श्रृष्टि कर्ता ब्रह्मा जी ने सनक, सनंदन, सनातन तथा सनतकुमार, नामक अपने चार मानस पुत्रों को उत्पन्न किया तथा उन्हें प्रजा विस्तार की आज्ञा दी। परन्तु, वे चारों सर्वदा ही ब्रह्म-तत्व को जानने में मग्न रहते थें, परिणामस्वरूप ब्रह्मा जी को बड़ा ही क्रोध हुआ तथा क्रोध-वश अपने मस्तक से ‘मनु (पुरुष) तथा शतरूपा (कन्या) को प्रकट किया तथा उन्हें प्रजा विस्तार की आज्ञा दी। इस चराचर जगत के सम्पूर्ण जीव इन्हीं दोनों की संतान हैं। स्वायंभुव मनु के महारानी शतरूपा से प्रियव्रत और उत्तानपाद नामक के दो पुत्रों के अलावा तीन कन्याएं और भी थीं; जो आकूति, देवहूति और प्रसूति नाम से विख्यात थीं।

स्वायंभुव मनु के कन्याओं की वंश परंपरा

मनु की कन्या 'आकूति का रूचि प्रजापति' के संग विवाह तथा उन दोनों से 'विष्णु तथा दक्षिणा की उत्पत्ति'।

आकूति का विवाह रूचि प्रजापति के संग हुआ, प्रजापति भगवान् के चिंतन के कारण ब्रह्म-तेज से सम्पन्न थे। आकूति के गर्भ से साक्षात् यज्ञस्वरूपी ‘भगवान् विष्णु’ तथा भगवान् नारायण से कभी न अलग रहने वाली 'लक्ष्मी जी' की अंश अवतार रूपी ‘दक्षिणा’ नाम के दो संतान ने जन्म ग्रहण किया। रूचि प्रजापति के पास कन्या को छोड़, मनु अपने साथ पुत्र को ले आये। तदनंतर, कालांतर में जब दक्षिणा विवाह के योग्य हुई तो उन्होंने यज्ञ पुरुष "विष्णु" को ही पति रूप में प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। भगवान् विष्णु ने दक्षिणा से विवाह किया तथा बारह पुत्रों को उत्पन्न किया; उनके नाम हैं तोष, प्रतोष, संतोष, भद्र, शान्ति, इदस्पति, इध्म, कवि, विभु, स्वह्न, सुदेव और रोचन। भगवान् विष्णु के ये बारह पुत्र स्वायम्भुव मन्वंतर में ‘तुषित’ नाम के देवता हुए, इस मन्वंतर में मरीचि आदि सप्तर्षि थे, भगवान यज्ञ ही देवताओं के अधीश्वर इंद्र थे, मनु-पुत्र प्रियव्रत तथा उत्तानपाद भी वे ही थे।

मनु की 'देवहूति नाम की कन्या का कदर्म प्रजापति-ऋषि के संग विवाह तथा कपिल भगवान् तथा नौ कन्याओं का जन्म।

मनु की दूसरी कन्या देवहूति का विवाह कदर्म जी के संग हुआ, भगवान नारायण के कपिल अवतार को उन्होंने पुत्र रूप में प्राप्त किया, साथ ही इनकी नौ कन्याएँ भी थीं। कपिल भगवान के दर्शाए हुए मार्ग से उन दोनों ने मोक्ष प्राप्त किया। कदर्म जी की नौ कन्याओं का विवाह नौ ब्रह्म-ऋषि से हुई थीं।

कदर्म जी की पुत्री ‘कला’ का विवाह मरीचि ऋषि से हुआ था, जिनके दो पुत्र हुए कश्यप और पूर्णिमा, इन्हीं दोनों के वंश या संतानों से समस्त जगत भरा हुआ हैं। पूर्णिमा के दो पुत्र – विराज और विश्वग तथा देवकुल्या नाम की एक कन्या थीं, यह कन्या अपने दूसरे जन्म में देव-नदी गंगा के रूप में प्रकट हुई।

महा-देवों (ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश) के अत्रि ऋषि के घर जन्म लेने का कारण।

ब्रह्मा जी से उनके पुत्र मरीचि को सृष्टि रचना हेतु आज्ञा प्राप्त हुई, परिणामस्वरूप वे अपनी सहधर्मिणी संग तप-साधना करने हेतु ऋक्ष नामक पर्वत पर गए। वहां के विशाल वन में प्राणायाम द्वारा चित को वश में रखते हुए सौ वर्षों तक केवल वायु पी कर, सर्दी-गर्मी इत्यादि द्वंदों की चिंता न करते हुए, एक पर पर खड़े हो केवल मन में प्रार्थना करते रहे कि “जो कोई इस चराचर जगत के ईश्वर हैं, में उनकी शरण में हूँ; वे मुझे अपने समान संतान प्रदान करें।”
अत्रि मुनि के कठोर तप से उनके मस्तक से तेज निकल कर तीनों लोकों को तपा रहा हैं, इसे देख तीनों महा-देव ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश उनके आश्रम में आये। अत्रि मुनि ने एक पैर से खड़े हो कर उन तीनों को अर्ध्य-पुष्पों से उनकी पूजा की तथा दंड के समान लेट कर प्रणाम किया। वे तीनों महादेव अपने-अपने वाहन हंस, गरुड़ तथा महेश (बैल) पर आरूढ़ हो कर आयें थे तथा अपने हाथों में चक्र, त्रिशूल आदि अस्त्र थे। अत्रि मुनि ने उनसे कहा ! प्रत्येक कल्प के आरम्भ में जगत की उत्पत्ति, स्थिति और ले हेतु माया-सत्त्वादि गुणों को विभक्त कर भिन्न-भिन्न शरीर धारण करने वाले, ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश में आप को प्रणाम करता हूँ। कृपा कर आप मुझे बताएं की मैंने जिन महानुभाव का स्मरण किया था वे आप तीनों में से कौन हैं ? मैंने केवल संतान प्राप्ति की कामना से एक सुरेश्वर भगवान् का चिंतन किया था; आप तीनों ने यहाँ पधारने की कृपा कैसे की; कृपा कर आप मुझे इसका रहस्य बताइये।
अत्रि मुनि की इस प्रकार वचन सुन कर तीनों देवों ने कहा ! तुम सत्य संकल्प हो, अतः तुमने जैसा संकल्प किया था, वही होगा, तुम जिन ‘जगदीश्वर’ का ध्यान करते थे, वह हम तीनों ही हैं। तुम्हारे यहाँ हमारे अंश स्वरूपी तीन जगत विख्यात पुत्र उत्पन्न होंगे, जो तुम्हारे यश का विस्तार करेंगे। इस प्रकार तीनों महादेव; ऋषि तथा उनकी पत्नी अनसूया से पूजित हो वह से अपने-अपने लोकों को चले गए। ब्रह्मा जी के अंश से चन्द्रमा, विष्णु के अंश से योग-वेत्ता दत्तात्रेय तथा महादेव जी के अंश से दुर्वासा, अत्रि ऋषि की संतान रूप में जन्म ग्रहण किया।

अंगीरा की पत्नी श्रद्धा ने “सिनीवाली, कुहू, राका और अनुमति”, चार कन्याओं को जन्म दिया। इनके अतिरिक्त उनके "उतथ्यजी और बृहस्पतिजी", इन दोनों पुत्रों ने जन्म लिया।

पुलस्त्य जी की उनकी पत्नी हविर्भू से, महर्षि “अगस्त और विश्रवा” ये दो पुत्र हुए, इनमें अगस्त जी अपने दूसरे जन्म में 'जठराग्नि' हुए। महातपस्वी विश्रवा मुनि की पत्नी इडविडा के गर्भ से यक्ष-राज “कुबेर” का जन्म हुआ तथा उनकी दूसरी पत्नी केशिनी से ‘रावण, कुम्भकर्ण एवं विभीष’ से जन्म ग्रहण किया।

महर्षि पुलह की अर्धांगिनी गति से “कर्मश्रेष्ठ, वरियान और सहिष्णु” तीन पुत्रों ने जन्म लिया।

क्रतु की पत्नी क्रिया ने ब्रह्मा तेज से संपन्न देदीप्यमान “वार्लखल्यादि”, साठ सहस्त्र ऋषियों को जन्म दिया।

वसिष्ठ जी की पत्नी उर्जा (अरुंधती) से "चित्रकेतु आदि" सत् विशुद्ध-चित ब्रह्मऋषियों का जन्म हुआ, “चित्रकेतु, सुरोचि, विरजा, मित्र, उल्यण, वसुभृद्यान और द्युमान” इनके नाम थे। इनकी दूसरी पत्नी से शक्ति आदि अन्य पुत्र भी हुए।

अथर्वा मुनि की पत्नी चित्ति ने “दधीचि” (दद्यङ्) नामक महान तपोनिष्ट पुत्र को जन्म दिया।

भृगु ऋषि के वंश का वर्णन।

भृगु ऋषि की अपनी पत्नी ख्याति से “धाता और विधाता” नामक पुत्र तथा “श्री” नाम की एक कन्या ने जन्म हुआ। मेरु ऋषि की आयति और नियति नाम की कन्याओं का क्रमशः विवाह धाता और विधाता के संग हुआ, जिनसे ‘मृकंड और प्राण’ नाम के पुत्र हुए। मृकंड से ‘मार्कंडेय’ तथा प्राण से ‘वेदशिरा’ नामक पुत्रों का जन्म हुआ। इसके अलावा “उशना या शुक्राचार्य” नामक पुत्र भी भृगु की थीं।
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प्रसूति तथा दक्ष प्रजापति का विवाह तथा उनसे उत्पन्न संतान।

मनु की तीसरी कन्या प्रसूति का विवाह, ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष प्रजापति से हुई थीं, उन्हीं की विशाल वंश परंपरा तीनों लोकों में फैली हुई हैं। दक्ष ने अपनी कन्याओं में, तेरह कन्याएं; श्रद्धा, मैत्री, दया, शांति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, ह्रीं और मूर्ति का विवाह धर्म के साथ किया। इनमें से श्रद्धा ने शुभ, मैत्री ने प्रसाद, दया ने अभय, शांति ने कुछ, तुष्टि ने मोड़ और पुष्टि ने अहंकार को जन्म दिया; क्रिया ने योग, उन्नति ने दर्प, बुद्धि ने अर्थ, मेधा ने स्मृति, तितिक्षा ने क्षेम, लज्जा (ह्रीं) ने विनय नामक पुत्र को उत्पन्न किया। मूर्ति देवी ने भगवान् नारायण के अवतार “नर-नारायण” नामक ऋषियों की जन्म दिया। पृथ्वी का भर उतारने हेतु नर-नारायण ही यदुकुल के श्री कृष्ण तथा उनके साथी अर्जुन के रूप में अवतीर्ण हुए थे।

अग्नि देव की पत्नी स्वाहा ने अग्नि समान अभिमानी पावक, पवमान, और शुचि नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये; यह तीन ही हवन किये हुए पदार्थों का भक्षण करने वाले हैं; इन तीनों से ४५ प्रकार के अग्नि उत्पन्न हुए। अपने पिता, पितामह तथा ४५ अग्नि मिल कर उनचास अग्नि कहलाये।

दक्ष कुमारी स्वधा की, ‘अग्निष्ठात्त, बहिर्षद, सोमप और आज्य्प’, नामक पितरों से विवाह हुआ, इनसे ‘धारिणी और वयुना’ नाम की दो कन्याएं उत्पन्न हुई। ये दोनों कन्याएँ ज्ञान-विज्ञान में पारंगत और ब्रह्मा ज्ञान का उपदेश करने वाली हुई।

महादेव जी की पत्नी ‘सती’ थीं, उनके कोई भी पुत्र नहीं था; युवा अवस्था में अपने पिता दक्ष के यज्ञ में अपने पति के अपमान से क्रोधित हो, इन्होंने योगाग्नि से अपने आप को भस्म कर दिया था।

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र जिनको सप्तऋषी मंडल में स्थान मिला, १. मारीच ( ब्रह्मा जी के मन से प्रकट), २. अत्रि (ब्रह्मा जी के नेत्र मन से प्रकट), ३. अंगिरा (ब्रह्मा जी के मुख मन से प्रकट), ४. पुलह (ब्रह्मा जी के नाभि मन से प्रकट), ५. पुलस्त (ब्रह्मा जी के कान मन से प्रकट), ६. क्रतु (ब्रह्मा जी के हाथ मन से प्रकट), ७. वसिष्ठ (ब्रह्मा जी के प्राण मन से प्रकट), ८. भृगु (ब्रह्मा जी के त्वचा मन से प्रकट), ९. चित्रगुप्त (ब्रह्मा जी के ध्यान मन से प्रकट) १०. नारद (ब्रह्मा जी के गोंद मन से प्रकट) ११. दक्ष (ब्रह्मा जी के अंगुष्ठ मन से प्रकट), १२. कन्दर्भ (ब्रह्मा जी के छाया मन से प्रकट), इच्छा से चार सनतकुमार १३. सनक, १४. सनंदन, १५. सनातन, १६.सनतकुमार जो सर्वदा ही पांच वर्ष के बालक के रूप में विद्यमान रहते हैं। (मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष तथा कदर्म ये प्रजापतियों के रूप में जाने जाते हैं।)

ब्रह्मा जी के मानस पुत्र मरीचि के, मानस पुत्र महर्षि कश्यप हुए, तथा दक्ष प्रजापति के १७ कन्याओं का विवाह इन्हीं कश्यप ऋषि से हुआ तथा इन्हीं से समत देव, पशु, दैत्य तथा देव उत्पन्न हुए हैं ।
१. अदिति से देवता, २. दिति से दैत्य, ३. काष्ठा से अश्व इत्यादि ४. अनिष्ठा से गन्धर्व, ५. सुरसा से राक्षस, ६. इला से वृक्ष, ७. मुनि से अप्सरागण, ८. क्रोधवशा से सर्प, ९. सुरभि से गौ और महिष, १०. सरमा से हिंसक पशु, ११. ताम्रा से सियार, १२. गिद्ध इत्यादि, १३. तिमि से जल के जीव, १४. विनता से गरुड़ और अरुण, १५. कद्रु से नाग, १६. पतंगी से पतंग, १७. यामिनी से शलभ।

ब्रह्मा जी की अंतिम मानस संतान "कामदेव तथा रति थीं

संक्षेप में अधर्म के वंश का विवरण।

‘सनकादि ऋषि, नारद, ऋभु, हंस, अरुणि और यति’, ब्रह्मा जी के इन नैष्ठिक पुत्रों ने किसी से विवाह नहीं किया, सर्वदा ब्रह्मचारी ही रहें। ‘अधर्म’ भी ब्रह्मा जी का पुत्र था तथा इनकी पत्नी का नाम ‘मृषा’ थीं तथा इन दोनों की ‘दंभ तथा माया’ को जन्म दिया। इन दोनों को निऋति ले गए थे, वे संतान हीन थे। दंभ और माया से ‘लोभ तथा निकृति (शठता)’ का जन्म हुआ, इनसे ‘क्रोध और हिंसा’ का जन्म हुआ, इनसे ‘कलह और दुरुक्ति (गाली)’ उत्पन्न हुए। दुरुक्ति और कलह से 'भय तथा मृत्यु' को जन्म दिया तथा इन दोनों के संयोग से 'यातना और नरक' का जन्म हुआ।

स्वायम्भुव मनु के पुत्र वंश का वर्णन।

स्वायम्भुव मनु तथा उनकी पत्नी शतरूपा से भगवान विष्णु के कला से ‘प्रियव्रत तथा उत्तानपाद’ नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। उत्तानपाद का सुनीति तथा सुरुचि नाम की कन्या से विवाह हुआ था, इनमें सुरुचि राजा उत्तानपाद को अधिक प्रिय थीं जिसकी पुत्र का नाम "उत्तम" था, सुनीति उन्हें प्रिय नहीं थीं, सुनीति से जन्म ग्रहण करने वाले पुत्र "ध्रुव" भी उन्हें प्रिय नहीं था। उत्तम का वध यक्षों द्वारा हुआ था।

राजा ध्रुव का वंश वर्णन।

महाराज ध्रुव के बद्रिकाश्रम गमन के पश्चात, उनके पुत्र उत्कल ने राजसिंहासन को अस्वीकार कर दिया था। वे बाल्य-काल से ही शांत चित्त, आसक्ति त्यागी तथा समदर्शी थे, वे सम्पूर्ण लोकों को अपने आत्मा में और आत्मा को सम्पूर्ण लोकों में अनुभूत करते थे। उन्होंने योगाग्नि से वासना रूपी अग्नि को बुझा दिया था, सभी प्रकार के भेदों से रहित प्रशांत ब्रह्म को ही अपना स्वरूप समझते थे, उन्हें अपनी आत्मा से भिन्न कुछ भी नहीं दिखता था। वे अज्ञानियों को मूर्ख, अँधा, बहिरा, पागल सा प्रतीत होते थे, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं था, जिसने हेतु परमेश्वर श्री हरि ही ब्रह्मा हैं, उसे और किसी आसक्ति की क्या आवश्यकता हैं। इस प्रकार के आचरण को देख कर राज्य के मंत्रियों ने उनके छोटे भाई भ्रमि-पुत्र ‘वत्सर’ को राजा बना दिया।
वत्सर की भार्या ‘स्ववींथि’ के गर्भ से ‘पुष्पार्ण, तिग्मकेतु, इष, ऊर्जा, वासु और जय’ नामक ६ पुत्र उत्पन्न हुए।
पुष्पार्ण के ‘प्रभा और दोषा’ नाम की दो सहधर्मिणी थीं, उनसें ‘प्रभात के प्रातः, मध्यन्दिन और सांय’ ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। दोषा के ‘प्रदोष, निशीथ और व्युष्ट’ ये तीन पुत्र उत्पन्न हुए। व्युष्ट ने अपनी पत्नी पुष्करिणी से ‘सर्वतेजा’ नामक पुत्र को जन्म दिया। सर्वतेजा की पत्नी आकूति से 'चक्षु' नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, चाक्षुष मन्वंतर में वही अधिपति मनु हुआ। चक्षु मनु की स्त्री नड्वला से ‘पुरु, कुत्स, त्रित, द्युम्न, सत्यवान, ऋत, व्रत, अग्निष्टोम, अतिरात्र, प्रद्युम्न, शिवि, और उल्मुक' ये बारह सत्त्व गुण संपन्न पुत्रों ने जन्म लिया। इनमें उल्मुक ने अपनी पत्नी पुष्करिणी से 'अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और गय' नाम वाले ६ पुत्रों को जन्म दिया। अंग की पत्नी सुनीथा ने क्रूर-कर्मा, 'वेन' को जन्म दिया, इन्हीं वेन की क्रूरता से उद्विग्न होकर उनके पिता राजर्षि अंग नगर छोड़कर चले गए थें। उन्होंने कुपित होकर वेन को श्राप दिया था, जिससे उसकी मृत्यु हो गई थीं तथा राजा के न रहने के कारण लुटेरों द्वारा प्रजा में बहुत उत्पात मच गया था। इस समस्या के निवारण हेतु, ऋषियों ने वेन की दाहिनी भुजा का मंथन किया, जिसके फलस्वरूप भगवान् श्री जानार्दन के अंश अवतार महाराज ‘पृथु’ ने अवतार लिया था।