ब्रह्मा जी तथा पञ्च तत्वों, इन्द्रियों की उत्पत्ति
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| ब्रह्मा जी द्वारा भगवान नारायण का ध्यान लगाना तथा उपदेश |
ब्रह्मा जी के अन्तः करण में भगवान् का प्रवेश, उन्हीं से समस्त लोकों, तत्वों (जीवित तथा निर्जीव) की रचाना
जिसकी गति का ज्ञात करना संभव नहीं हैं, उन जीवों के प्रारब्ध, प्रकृति के नियंता पुरुष और काल, इन तीन हेतुओं से त्रिगुणमय प्रकृति में क्षोभ होने पर महा तत्त्व उत्पन्न हुआ। भगवान् की प्रेरणा से त्रिगुण सात्त्विक, राजस और तामस तीन प्रकार के अहंकारों का जन्म हुआ, इसी से पाँच तत्वों के अनेक वर्ग प्रकट हुए। सब अलग-अलग रहकर भूतों के कार्य स्वरूप ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं थे, परिणामस्वरूप भगवान की शक्ति से युक्त हो एक सुवर्ण अंड उत्पन्न हुआ। वह अंड चेतना रहित हो, बहुत काल तक जल में पड़ा रहा, तदनंतर उस अंड में भगवान ने प्रवेश किया। उस अंड में प्रवेश करने के पश्चात्, उनकी नाभि से एक कमल प्रकट हुआ, जो सम्पूर्ण जीवों का आश्रय था तथा उस से ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ। श्री नारायण जो ब्रह्माण्ड के गर्भ के जल में शयन करते हैं; उन्होंने ब्रह्मा जी के अन्तः करण में प्रवेश किया, उन्हीं से समस्त लोकों, तत्वों (जीवित तथा निर्जीव) की रचाना हुई हैं। सर्वप्रथम इन्होंने अपनी छाया से तामिस्र, अंध-तामिस्त्र, ताम, मोह तथा महा मोह इन पाँच प्रकार की अविद्या उत्पन्न की।ब्रह्मा जी को वह तमोमय शरीर अच्छा नहीं लगा, अतः उन्होंने उसका त्याग कर दिया, इससे भूख-प्यास की उत्पत्ति हुई। अविद्या युक्त तथा रात्रि स्वरूप उस शरीर को, उन्हीं से उत्पन्न हुए यक्षों तथा राक्षसों ने ग्रहण किया, इस प्रकार भूख-प्यास से अभिभूत होकर वे ब्रह्मा जी को खाने हेतु दौड़े, कहने लगे ! इसे खा जाओ ! इसकी रक्षा मत करो। इस पर ब्रह्मा जी ने उनसे कहा; तुम मेरी संतान हो, मेरा भक्षण मत करो, मेरी रक्षा करो। ब्रह्मा जी से उत्पन्न भूख-प्यास से व्याकुल जिन्होंने कहा ! ‘खा जाओ’ वे यक्ष रूप में जाने गए तथा जिन्होंने कहा ! रक्षा मत करो वे राक्षस कहलाये।
ब्रह्मा जी द्वारा देवताओं तथा असुरों का प्राकट्य।
इसके पश्चात्, सात्त्विक प्रभा से ब्रह्मा जी ने मुख्य-मुख्य देवताओं की रचना की, देवताओं ने ब्रह्मा जी के सात्त्विक दिन रूप प्रकाश मान शरीर को ग्रहण किया। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने जंघा से असुरों को उत्पन्न किया, उत्पन्न होते ही काम लोलुप हो वे ब्रह्मा जी के पीछे पड़ गए। यह देख पहले तो ब्रह्मा जी बहुत जोर से हँसे ! परन्तु उन्हें अपने पीछे लगा देख, भयभीत हो वे भागे। भागते-भागते वे सीधा श्री हरि विष्णु के पास पहुंचे, ब्रह्मा जी ने भगवान श्री हरि से कहा ! मेरी रक्षा कीजिये ! आप से प्रेरित हो मैंने प्रजा की उत्पत्ति की थी, परन्तु वे तो पाप कर्म में प्रवृत्त हो मुझे ही सताने लगे। एक मात्र आप ही जीवों के दुःख को दूर करने में समर्थ हैं; आप को प्रत्यक्ष सभी के हृदय की जानने वाले हैं। भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा तुम अपनी इस काम कलुषित शरीर का त्याग कर दो; इस पर ब्रह्मा जी ने उस शरीर का त्याग कर दिया।ब्रह्मा जी से संध्या देवी का प्राकट्य तथा असुरों द्वारा उनका ग्रहण करना।
ब्रह्मा जी के त्यागे हुए काम कलुषित शरीर से एक सुन्दर स्त्री संध्या देवी का प्राकट्य हुआ। वह स्त्री बहुत सुन्दर थी तथा नाना अलंकारों से सुसज्जित थीं। संध्या देवी को देख कर सभी असुर मोहित हो गए तथा नाना प्रकार के तर्क-वितर्क करना प्रारंभ कर दिया। दैत्यों ने संध्या देवी से पूछा ! तुम कौन हो तथा किसकी पुत्री हो ? इस प्रकार स्त्री रूप में प्रकट हुई उस संध्या देवी को उन कामातुर दैत्यों ने ग्रहण कर लिया।तदनंतर, ब्रह्मा जी ने गंभीर भाव से हँसते हुए अपनी कांतिमय शरीर से, जो बहुत ही मनोरम तथा सुन्दर थीं, गन्धर्व तथा अप्साराओं को उत्पन्न किया।
उन्होंने ज्योत्स्ना रूप अपने उस कांतिमय शरीर को त्याग दिया तथा जिसे विश्वावसु इत्यादि गन्धर्वों ने प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया।
इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने तंद्रा से भूत-पिशाचों को उत्पन्न किया, वे सभी दिगम्बर तथा बिखरे बाल वाले थे, इसे देख उन्होंने अपनी आंखे मूंद ली। ब्रह्मा जी के त्यागे हुए उस जँभाई रूप शरीर को भूत-पिशाचों ने ग्रहण किया, इसी को निद्रा भी कहा जाता हैं। मनुष्यों के झूठे मुंह सोने से, उन पर भूत-पिशाचादि उन्माद करते हैं।
ब्रह्मा जी की भावना कि मैं तेजोमय हूँ तथा अदृश्य स्वरूप से सध्यागण एवं पितरों को उत्पन्न किया, पितरों ने ब्रह्मा जी के अदृश्य स्वरूप को ग्रहण किया।
तिरोधान शक्ति से ब्रह्मा जी ने सिद्ध और विद्या-धरों की सृष्टि की तथा उन्हें अपना अंतर्धान नामक शरीर प्रदान किया।
एक बार ब्रह्मा जी ने अपना प्रतिबिम्ब देखा तथा अपने आप को सुन्दर मानकर उन्होंने अपने प्रतिबिम्ब से किन्नर तथा किम्पुरुषों को उत्पन्न किया, उन्होंने ब्रह्मा जी के त्यागे हुए प्रतिबिम्ब स्वरूप को ग्रहण किया।
एक बार ब्रह्मा जी ने सृष्टि का विस्तार न देख कर बहुत अधिक चिंतित हुए, वे अपने हाथ-पैर आदि अवयवों को फैला कर लेट गए, तदनंतर उस भोगमय शरीर को त्याग दिया। उनसे जो बाल झड़े वे अहि हुए तथा उनके हाथ पैर सिकुड़ कर चलने के कारण क्रूर स्वभाव के सर्प तथा नाग उत्पन्न हुए।
ब्रह्मा जी ने एक बार अपने आप को कृतकृत्य सा अनुभव किया, उस समय अंत में उन्होंने अपने नाम से मनुओं को उत्पन्न किया, ये सब प्रजा की वृद्धि करने वाले थे। ब्रह्मा जी ने अपना पुरुष शरीर उन्हें प्रदान किया। तदनंतर ब्रह्मा जी ने इन्द्रिय संयम पूर्वक ताप, विद्या, योग और समाधि से सम्पन्न हो अपने प्रिय संतान ऋषि गणों को उत्पन्न किया तथा उन प्रत्येक को अपने समाधि, योग, ऐश्वर्य, तप, विद्या, वैराग्य रूपी शरीर का कोई का कोई अंश दिया।
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सृष्टि वर्णन के सम्बन्ध में नारद जी का अपने पिता ब्रह्मा जी से प्रश्न करना।
एक बार नारद जी ने अपने पिता ब्रह्मा जी से पूछा ! आप केवल मेरे ही पिता नहीं, सभी के पिता हैं, संपूर्ण सृष्टि की आप ने संरचना की हैं, आप सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं। आप मुझे वह ज्ञान दीजिए जिससे आत्म तत्व का साक्षात्कार हो सके। इस संसार का लक्षण, आधार, निर्माण, प्रलय, अधीन, तत्व मुझे बतलाइये, आप सब कुछ जानते हैं, जो भी हुआ हैं उस के स्वामी आप ही हैं। आपको यह ज्ञान कहा से प्राप्त हुआ हैं ? आप किसके आधार पर स्थित हैं ? आपका स्वरूप क्या हैं ? आप के स्वामी कौन हैं ? आप स्वयं ही अपने माया से पंच महा-भूतों द्वारा प्राणियों की सृष्टि कर लेते हैं, यह कितना अद्भुत हैं। सम्पूर्ण जगत में नाम, रूप तथा गुण जो भी जाना जाता हैं, उनमें मैं ऐसा कोई सत्, असत्, उत्तम, मध्यम या अधम वस्तु नहीं देखता, जिसको आप ने उत्पन्न नहीं किया हो। सब का ईश्वर होने पर भी आप ने घोर तपस्या की, क्या आप से भी बड़ा कोई हैं ? आप तो सर्वज्ञ तथा सर्वेश्वर हैं।इस पर ब्रह्मा जी ने नारद से कहा ! तुमने मेरे विषय में जो ये प्रश्न किया हैं, यह सत्य ही हैं। जब तक मुझ से परेका तत्त्व, जो स्वयं भगवान ही हैं, जान नहीं लिया जाता, तब तक मेरा ऐसा ही प्रभाव प्रतीत होता हैं। सूर्य, अग्नि, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र तथा तारे उन्हीं भगवान के प्रकाश से प्रकाशित हो, त्रिलोक को प्रकाशित करते हैं। वैसे ही मैं उन प्रकाश मय भगवान श्री नारायण के चिन्मय प्रकाश से प्रकाशित हो, तीनों लोकों को प्रकाशित करता हूँ, उनका निर्माण करता हूँ। उन्हीं की दुर्जय माया से मोहित हो, सभी मुझे जगत-गुरु, पितामह, जगत सृष्टि कर्ता कहते हैं। माया तो उनके आखों के सामने ठहरती ही नहीं, झपक कर दूर से भाग जाती हैं। अज्ञानी जन, उसी माया से मोहित हो “यह मैं हूँ ! यह मेरा हैं !” कहते तथा सोचते हैं, द्रव्य, कर्म, काल, स्वभाव तथा जीव, भगवान से अलग नहीं हैं, वेद भी उन्हीं के परायण हैं। समस्त देवता, नारायण के अंग में कल्पित हुए हैं, समस्त यज्ञ उन्हीं के प्रसन्नता हेतु किये जाते हैं तथा कर्मों का फल जो प्राप्त होता हैं, वह भी नारायण में कल्पित हैं, समस्त योग उन्हीं नारायण की प्राप्ति के निमित्त की जाती हैं। समस्त प्रकार की तपस्याएँ नारायण की ओर ले जाने वाली हैं, ज्ञान का स्वरूप भी नारायण हैं, समस्त साध्य और साधनों का पर्यवसान भगवान में ही हैं। वे द्रष्टा होने पर भी साक्षात् ईश्वर हैं, सभी के स्वामी हैं, निराकार-निर्विकार होते हुए भी सर्व स्वरूप हैं। उन्हीं भगवान नारायण ने मुझे बनाया हैं, उनके इच्छा स्वरूप में सृष्ट रचना कार्य में संलग्न रहता हूँ, वे माया के गुणों से रहित हैं।
भगवान श्री नारायण से पञ्च तत्वों, इन्द्रियों, मानव देह, सप्त लोक तथा पाताल की उत्पत्ति।
सृष्टि, स्थिति, प्रलय हेतु रजोगुण, सत्व गुण तथा तमो गुण माया के द्वारा उन्हीं में अवस्थित हैं, ये तीनों गुण द्रव्य, ज्ञान, और क्रिया का आश्रय लेकर मायातीत नित्य मुक्त पुरुषों को ही माया में स्थित होने पर कार्य, कारण तथा कर्ता पण के अभिमान से बाँध लेते हैं। भगवान इन गुणों के आवरण से अपने आप को ढक लेते हैं, परिणामस्वरूप लोग उनके नाना स्वरूप को नहीं जान पाते हैं। इस समस्त संसार के मेरे वे भगवान नारायण ही स्वामी हैं। माया पति भगवान के एक से अनेक होने की इच्छा से काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार लिया हैं, उन्हीं की शक्ति से ही तीनों गुण क्षोभ युक्त हैं। स्वभाव ने उन्हें रूपांतरित कर दिया हैं और कर्म ने महत्तत्त्व को जन दिया हैं। रजोगुण और सत्व गुण की अधिकता होने पर महत्तत्त्व का जो विकार हुआ, उसी से ज्ञान, क्रिया और दिव्य रूप तम प्रधान विकार उत्पन्न हुआ हैं। वह अहंकार कहलाया और विकार को प्राप्त होकर तीन प्रकार का हो गया, वैकारिक, तैजस और तामस इसके भेद हैं। जब पञ्च महा भूतों के कारण रूप तामस अहंकार में विकार हुआ, तो उस से आकाश की उत्पत्ति हुई। जब आकाश में विकार हुआ तो उस से वायु ने जन्म लिया, जिसका गुण स्पर्श हैं, इन्द्रियों की स्फूर्ति, जीवन शक्ति, ओज और बल, वायु के ही रूप हैं। काल, कर्म और स्वभाव से वायु में भी विकार उत्पन्न हुआ, जिससे तेज की उत्पत्ति हुई, जिसका प्रधान गुण रूप हैं, साथ ही इसके कारण आकाश और वायु के गुण शब्द एवं स्पर्श इसमें हैं। तेज के विकार से जल उत्पन्न हुआ, जिसका गुण रस, कारण तत्त्वों के गुण शब्द, स्पर्श और रूप हैं। जल के विकार से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई, जिसका गुण गंध हैं, कारण के गुण कार्य में आते हैं, शब्द, स्पर्श, रूप और रस ये चारों गुण इसी में विद्यमान हैं। वैकारिक अहंकार से मन की तथा इन्द्रियों के दश अधिष्ठाताओं की उत्पत्ति हुई हैं, दिशा, वायु, सूर्य, वरुण, अश्विनी कुमार, अग्नि, इंद्र, विष्णु, मित्र तथा प्रजापति। तैजस अहंकार के विकार से श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और घ्राण ये पञ्च ज्ञान इन्द्रियां तथा वाक्, हस्त, पाद, गुदा, जननेंद्रिय, ये पञ्च कर्म इन्द्रिय उत्पन्न हुई हैं। साथ ही ज्ञान शक्ति रूप बुद्धि और क्रिया शक्ति रूप प्राण भी तैजस अहंकार से ही उत्पन्न हुए हैं।जिस काल में, पञ्च भूत, इन्द्रिय, मन, और सत्त्व आदि तीन गुण परस्पर संगठित नहीं थे, तक रहने हेतु भोगों के साधन रूप शरीर की रचना नहीं हो सकीं। भगवान नारायण द्वारा अपनी शक्ति से प्रेरित होने पर, ये समस्त तत्व परस्पर एक दूसरे से युक्त हुए तथा परस्पर कार्य-कारण भाव स्वीकार कर व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड तथा ब्रह्माण्ड दोनों की रचना हुई। वह ब्रह्माण्ड स्वरूपी अंडा बहुत काल तक निर्जीव रूप से जाल में पड़ा रहा, तदनंतर काल, कर्म तथा स्वामी को स्वीकार करने वाले भगवान नारायण ने उसे चैतन्य किया। उस अंडे से उन विराट भगवान पुरुष रूप से प्रकट हुए, जिनकी जंघा, चरण, भुजाएं, नेत्र, मुख तथा सहस्त्र मस्तक थे। उन्हीं के कमर के नीचे के अंगों में सात पाताल तथा सात स्वर्ग की कल्पना की जाती हैं; ब्राह्मण इस विराट पुरुष का मुख हैं, भुजाएं क्षत्रिय, जंघा वैश्य तथा पैर शूद्र रूप से उत्पन्न हुए हैं। नाभि में भुव लोक, हृदय में स्वलोक, वक्ष स्थल में महर्लोक की कल्पना की गई हैं, उनके गले में जन लोक, दोनों स्तनों में तपोलोक, मस्तक में ब्रह्मा जी का नित्य निवास स्थान हैं।

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल १५ - ameya jaywant narvekar कामकलाकाल्याः प्राणायुताक्षरी मन्त्रः
ReplyDeleteओं ऐं ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं हूं छूीं स्त्रीं फ्रें क्रों क्षौं आं स्फों स्वाहा कामकलाकालि, ह्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं क्रीं ठः ठः दक्षिणकालिके, ऐं क्रीं ह्रीं हूं स्त्री फ्रे स्त्रीं ख भद्रकालि हूं हूं फट् फट् नमः स्वाहा भद्रकालि ओं ह्रीं ह्रीं हूं हूं भगवति श्मशानकालि नरकङ्कालमालाधारिणि ह्रीं क्रीं कुणपभोजिनि फ्रें फ्रें स्वाहा श्मशानकालि क्रीं हूं ह्रीं स्त्रीं श्रीं क्लीं फट् स्वाहा कालकालि, ओं फ्रें सिद्धिकरालि ह्रीं ह्रीं हूं स्त्रीं फ्रें नमः स्वाहा गुह्यकालि, ओं ओं हूं ह्रीं फ्रें छ्रीं स्त्रीं श्रीं क्रों नमो धनकाल्यै विकरालरूपिणि धनं देहि देहि दापय दापय क्षं क्षां क्षिं क्षीं क्षं क्षं क्षं क्षं क्ष्लं क्ष क्ष क्ष क्ष क्षः क्रों क्रोः आं ह्रीं ह्रीं हूं हूं नमो नमः फट् स्वाहा धनकालिके, ओं ऐं क्लीं ह्रीं हूं सिद्धिकाल्यै नमः सिद्धिकालि, ह्रीं चण्डाट्टहासनि जगद्ग्रसनकारिणि नरमुण्डमालिनि चण्डकालिके क्लीं श्रीं हूं फ्रें स्त्रीं छ्रीं फट् फट् स्वाहा चण्डकालिके नमः कमलवासिन्यै स्वाहालक्ष्मि ओं श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्री महालक्ष्म्यै नमः महालक्ष्मि, ह्रीं नमो भगवति माहेश्वरि अन्नपूर्णे स्वाहा अन्नपूर्णे, ओं ह्रीं हूं उत्तिष्ठपुरुषि किं स्वपिषि भयं मे समुपस्थितं यदि शक्यमशक्यं वा क्रोधदुर्गे भगवति शमय स्वाहा हूं ह्रीं ओं, वनदुर्गे ह्रीं स्फुर स्फुर प्रस्फुर प्रस्फुर घोरघोरतरतनुरूपे चट चट प्रचट प्रचट कह कह रम रम बन्ध बन्ध घातय घातय हूं फट् विजयाघोरे, ह्रीं पद्मावति स्वाहा पद्मावति, महिषमर्दिनि स्वाहा महिषमर्दिनि, ओं दुर्गे दुर्गे रक्षिणि स्वाहा जयदुर्गे, ओं ह्रीं दुं दुर्गायै स्वाहा, ऐं ह्रीं श्रीं ओं नमो भगवत मातङ्गेश्वरि सर्वस्त्रीपुरुषवशङ्करि सर्वदुष्टमृगवशङ्करि सर्वग्रहवशङ्करि सर्वसत्त्ववशङ्कर सर्वजनमनोहरि सर्वमुखरञ्जिनि सर्वराजवशङ्करि ameya jaywant narvekar सर्वलोकममुं मे वशमानय स्वाहा, राजमातङ्ग उच्छिष्टमातङ्गिनि हूं ह्रीं ओं क्लीं स्वाहा उच्छिष्टमातङ्गि, उच्छिष्टचाण्डालिनि सुमुखि देवि महापिशाचिनि ह्रीं ठः ठः ठः उच्छिष्टचाण्डालिनि, ओं ह्रीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां मुखं वाचं स्त म्भय जिह्वां कीलय कीलय बुद्धिं नाशय ह्रीं ओं स्वाहा बगले, ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं धनलक्ष्मि ओं ह्रीं ऐं ह्रीं ओं सरस्वत्यै नमः सरस्वति, आ ह्रीं हूं भुवनेश्वरि, ओं ह्रीं श्रीं हूं क्लीं आं अश्वारूढायै फट् फट् स्वाहा अश्वारूढे, ओं ऐं ह्रीं नित्यक्लिन्ने मदद्रवे ऐं ह्रीं स्वाहा नित्यक्लिन्ने । स्त्रीं क्षमकलह्रहसयूं.... (बालाकूट)... (बगलाकूट )... ( त्वरिताकूट) जय भैरवि श्रीं ह्रीं ऐं ब्लूं ग्लौः अं आं इं राजदेवि राजलक्ष्मि ग्लं ग्लां ग्लिं ग्लीं ग्लुं ग्लूं ग्लं ग्लं ग्लू ग्लें ग्लैं ग्लों ग्लौं ग्ल: क्लीं श्रीं श्रीं ऐं ह्रीं क्लीं पौं राजराजेश्वरि ज्वल ज्वल शूलिनि दुष्टग्रहं ग्रस स्वाहा शूलिनि, ह्रीं महाचण्डयोगेश्वरि श्रीं श्रीं श्रीं फट् फट् फट् फट् फट् जय महाचण्ड- योगेश्वरि, श्रीं ह्रीं क्लीं प्लूं ऐं ह्रीं क्लीं पौं क्षीं क्लीं सिद्धिलक्ष्म्यै नमः क्लीं पौं ह्रीं ऐं राज्यसिद्धिलक्ष्मि ओं क्रः हूं आं क्रों स्त्रीं हूं क्षौं ह्रां फट्... ( त्वरिताकूट )... (नक्षत्र- कूट )... सकहलमक्षखवूं ... ( ग्रहकूट )... म्लकहक्षरस्त्री... (काम्यकूट)... यम्लवी... (पार्श्वकूट)... (कामकूट)... ग्लक्षकमहव्यऊं हहव्यकऊं मफ़लहलहखफूं म्लव्य्रवऊं.... (शङ्खकूट )... म्लक्षकसहहूं क्षम्लब्रसहस्हक्षक्लस्त्रीं रक्षलहमसहकब्रूं... (मत्स्यकूट ).... (त्रिशूलकूट)... झसखग्रमऊ हृक्ष्मली ह्रीं ह्रीं हूं क्लीं स्त्रीं ऐं क्रौं छ्री फ्रें क्रीं ग्लक्षक- महव्यऊ हूं अघोरे सिद्धिं मे देहि दापय स्वाहा अघोरे, ओं नमश्चा ameya jaywant narvekar